केंद्र सरकार को मिली अविश्वास प्रस्ताव की चुनौती ?
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय तथा अंतरराष्ट्रीय संबंध। |
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलने से नाराज टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस ने केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का ऐलान किया है. इन्हें प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस और कुछ अन्य दलों का भी समर्थन मिला है. अगर अविश्वास प्रस्ताव लाने को मंजूरी मिल गई तो मोदी सरकार के लिए पहला अविश्वास प्रस्ताव होगा.लोकसभा में सरकार के बहुमत के मद्देनज़र तकनीकी तौर पर सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से कोई खतरा नहीं है, लेकिन इससे अविश्वास प्रस्ताव का मुद्दा एक बार फिर सतह पर आ गया है।
क्या होता है अविश्वास प्रस्ताव?
जब लोकसभा में किसी विपक्षी पार्टी को लगता है कि सरकार के पास बहुमत नहीं है या सदन में सरकार विश्वास खो चुकी है तो वह अविश्वास प्रस्ताव लाती है। इसे No Confidence Motion भी कहते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-75 में कहा गया है कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जवाबदेह है, अर्थात् इस सदन में बहुमत हासिल होने पर ही मंत्रिपरिषद बनी रह सकती है। इसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना होता है।
लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमावाली के नियम 198(1) से 198(5) तक मंत्रिपरिषद में अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत करने हेतु प्रक्रिया निर्धारित की गई है।
अनुच्छेद 198(1)(क) |
इस नियम के तहत अविश्वास लेन वाले सदस्य को स्पीकर के बुलाने पर सदन से इसके लिये अनुमति मांगनी पड़ती है।
|
अनुच्छेद 198(1)(ख) |
इस नियम के तहत सुबह 10 बजे तक इस प्रस्ताव की लिखित सूचना लोकसभा महासचिव को देनी होती है। इस समय के बाद मिली सूचना को अगले दिन मिली सूचना माना जाता है। |
अनुच्छेद 198(2) |
इस नियम के तहत प्रस्ताव के पक्ष में कम-से-कम 50 सदस्यों का होना आवश्यक है। यदि इतने सांसद न हों तो अध्यक्ष प्रस्ताव रखने की अनुमति नहीं देते।
|
अनुच्छेद 198(3) |
इस नियम के तहत अध्यक्ष अनुमति मिलने के बाद इस पर चर्चा के लिये एक या अधिक दिन या किसी दिन का एक भाग तय करते हैं।
|
अनुच्छेद 198(4) |
इस नियम के तहत अध्यक्ष चर्चा के अंतिम दिन मतदान के ज़रिये निर्णय की घोषणा करते हैं। इस नियम के तहत भाषणों की समय-सीमा तय करने का अधिकार अध्यक्ष को मिला है।
|
इसे मंज़ूरी मिलने पर सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन को यह साबित करना होता है कि उन्हें सदन में ज़रूरी समर्थन प्राप्त है।
अविश्वास प्रस्ताव |
विश्वास प्रस्ताव |
1-अविश्वास का प्रस्ताव (वैकल्पिक रूप से अविश्वास, निंदा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव या विश्वास प्रस्ताव पर मतदान) एक संसदीय प्रस्ताव है, जिसे पारंपरिक रूप से विपक्ष द्वारा संसद में एक सरकार को हराने या कमजोर करने की उम्मीद से रखा जाता है 2- आमतौर पर जब संसद अविश्वास पर वोट करती है या वह विश्वास मत में विफल रहती है, तो किसी सरकार को दो तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करनी होती है : · त्यागपत्र देना · संसद को भंग करने और आम चुनाव का अनुरोध
|
1-सरकार का विश्वास प्रस्ताव. विश्वास प्रस्ताव (motion of confidence) संसद के सदन में बहुमत का समर्थन होने में संदेह की स्थिति में सरकार लोक सभा में विश्वास प्रस्ताव पेश करती है. यानी विश्वास प्रस्ताव सरकार पेश करती है. 2- इस प्रस्ताव का उद्देश्य यह सिद्ध करना होता है कि सदन का बहुमत उसके साथ है. विश्वास प्रस्ताव के पारित न होने की दशा में सरकार को त्याग पत्र देना पड़ता है. |
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव को मंज़ूरी के लिये कम-से-कम 50 सांसदों का समर्थन ज़रूरी होता है।
इसमें वोटिंग के लिये केवल लोकसभा के सांसद ही पात्र होते हैं, राज्यसभा के सांसद वोटिंग प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकते।
विपक्षी दल को लोकसभा स्पीकर को इसकी लिखित सूचना देनी होती है। इसके बाद स्पीकर उस दल के किसी सांसद से इसे पेश करने के लिये कहते हैं।
लोकसभा स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव को मंज़ूरी दे देते हैं, तो प्रस्ताव पेश करने के 10 दिनों के अदंर इस पर चर्चा ज़रूरी है।
इसके बाद स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करा सकता है या फिर कोई फैसला ले सकता है।
इसके लिये मतदान होने पर सरकार अपने सांसदों के लिये व्हिप जारी कर सकती है, जिसके बाद अपनी पार्टी लाइन से हटकर मतदान करने वाला सांसद अयोग्य माना जा सकता है।
अविश्वास प्रस्ताव में सदन में मौजूद सदस्यों में आधे से एक ज़्यादा ने भी यदि सरकार के खिलाफ वोट दे दिया तो सरकार गिर जाती है।
अविश्वास प्रस्ताव को किसी कारण पर आधारित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब सूचना में कारण उल्लिखित होते हैं और उन्हें सभा में पढ़ा जाता है तब भी वे अविश्वास प्रस्ताव का भाग नहीं बनते हैं।
इतिहास के आईने में अविश्वास प्रस्ताव
भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार अगस्त 1963 में जे.बी. कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ रखे गए इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 वोट पड़े और विरोध में 347 वोट।
संसद में 26 से ज्यादा बार अविश्वास प्रस्ताव रखे जा चुके हैं और सबसे ज़्यादा या 15 अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार के खिलाफ आए।
लाल बहादुर शास्त्री और नरसिंह राव की सरकारों ने तीन-तीन बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया।
अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते हुए अब तक पहली बार 1978 में सरकार गिरी थी, जब तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार को मतदान में हार का सामना करना पड़ा था। उनकी सरकार के खिलाफ कुल दो बार यह प्रस्ताव लाया गया था।
1979 में अविश्वास प्रस्ताव पर ज़रूरी बहुमत नहीं जुटा पाने के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था।
इसके बाद 1989 में वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को अविश्वास प्रस्ताव पारित होने के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।
1993 में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार बहुत कम अंतर से अविश्वास प्रस्ताव को पार कर पाई थी।
1997 में एच.डी. देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार को अविश्वास प्रस्ताव में पराजय के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।
इसके बाद 1998 में संयुक्त मोर्चे की आई.के. गुजराल सरकार को भी अविश्वास प्रस्ताव हारने के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।।
राजग की तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी ने दो बार विश्वास मत प्राप्त करने की कोशिश की और दोनों बार असफल रहे। 1996 में उन्होंने केवल 13 दिन सरकार चलाने के बाद मत-विभाजन से पहले ही इस्तीफा दे दिया था और 1998 में उनकी सरकार केवल एक वोट से हार गई थी।
जुलाई 2009 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के विरोध में संप्रग सरकार के खिलाफ अविश्वास मत लाया गया था। तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मामूली बहुमत से इस पर विजय पाई थी।
सबसे ज़्यादा अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का रिकॉर्ड माकपा सांसद ज्योतिर्मय बसु के नाम है। उन्होंने अपने चारों प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ रखे थे।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में रहते हुए दो बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किये। पहला प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ था और दूसरा नरसिंह राव सरकार के खिलाफ।
संसद में लाए जाने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव
कार्य स्थगन प्रस्ताव ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आधे घंटे की चर्चा आधे घंटे की चर्चा से संबंधित प्रकिया लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम के नियम 55 तथा अध्यक्ष के निदेश के निदेश 19 द्वारा विनियमित होते हैं। इसके अंतर्गत, कोई भी सदस्य पर्याप्त लोक महत्त्व के ऐसे मामले पर चर्चा उठाने के लिये सूचना दे सकता है जो हाल ही के प्रश्न, तारांकित, अतारांकित या अल्प सूचना प्रश्न का विषय रहा हो और जिसके उत्तर के किसी तथ्य या विषय के संबंध में विशदीकरण की आवश्यकता हो। सूचना के साथ एक व्याख्यात्मक टिप्पणी दी जानी चाहिये जिसमें उस विषय पर चर्चा उठाने के कारण दिये गए हों और यह हस्ताक्षरित होनी चाहिये। एक बैठक के लिये आधे घंटे की चर्चा की केवल एक सूचना दी जाएगी और सभा में न तो कोई औपचारिक प्रस्ताव किया जाएगा और न ही मतदान किया जाएगा। जिस सदस्य ने सूचना दी है, वह एक संक्षिप्त लघु वक्तव्य देगा और जिन सदस्यों ने अध्यक्ष को पहले से सूचित किया है तथा बैलट में पहले चार स्थानों में से एक पर है, को किसी तथ्य या विषय के विशदीकरण के प्रयोजन से एक प्रश्न पूछने की अनुमति दी जाएगी। तत्पश्चात् संबंधित मंत्री संक्षिप्त उत्तर देता है। आधे घंटे की चर्चा कार्य मंत्रणा समिति द्वारा अनुमोदित तथा सभा द्वारा मंजूर दिवस पर की जाती है। अल्पकालीन चर्चा व्यवस्था का प्रश्न व्यवस्था के प्रश्न को सभा के समक्ष कार्य के संबंध में उठाया जा सकता है, बशर्ते अध्यक्ष किसी सदस्य को कार्य की एक मद समाप्त होने और दूसरी के प्रारंभ होने के बीच की अवधिमें व्यवस्था का प्रश्न उठाने की अनुमतिदें, यदिवह सभा में व्यवस्था बनाए रखने या सभा के समक्ष कार्य-विन्यास के संबंध में हो। कोई सदस्य व्यवस्था का प्रश्न उठा सकता है और इसका निर्णय अध्यक्ष करेंगे किक्या उठाया गया प्रश्न व्यवस्था का प्रश्न है और यदिवह व्यवस्था का प्रश्न है तो वह इस पर निर्णय देंगे जो अंतिम होगा। संसदीय विशेषाधिकार नियम 193 के तहत चर्चा नियम 377 के तहत चर्चा |
अन्य देशों में नियम तथा प्रक्रियाएँ
अन्य देशों में नियम तथा प्रक्रियाएँ
|
|
ब्रिटेन |
भारत में अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया ब्रिटेन की वेस्टमिन्स्टर प्रणाली की तरह है तथा कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में भी इसी मॉडल का अनुसरण किया जाता है। इस प्रणाली में परंपराओं का महत्त्व बहुत अधिक है। इस प्रणाली में निर्वाचित होकर बना निचला सदन महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
|
जर्मनी, स्पेन तथा इज़राइल |
जर्मनी, स्पेन तथा इज़राइल में अविश्वास प्रस्ताव के साथ उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव भी देना पड़ता है। इसमें अविश्वास और विश्वास मत के प्रस्ताव एक साथ सदन में रखे जाते हैं। इसे बदलाव के लिये रचनात्मक मतदान कहा जाता है। जर्मनी में विश्वास मत हारने पर चांसलर को इस्तीफा नहीं देना पड़ता, बशर्ते यह प्रस्ताव विपक्ष की तरफ से न लाया गया हो।
|
इटली |
इटली में अविश्वास प्रस्ताव पर दोनों सदनों की सहमति आवश्यक है।
|
जापान |
जापान में प्रतिनिधि सभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है।
|
संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और वेनेजुएला |
संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और वेनेजुएला के कुछ भागों में वापस बुलाने वाले चुनाव के जरिये अलोकप्रिय सरकार को हटाने की समान भूमिका अदा करता है, लेकिन, अविश्वास प्रस्ताव के विपरीत इस मतदान में सारे मतदाता शामिल होते है। |
विश्व में सबसे पहला अविश्वास प्रस्ताव ब्रिटेन में ही लाया गया था, जब 1742 में रॉबर्ट वाल्पोल की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ था।
संसद में व्हिप:- |
व्हिप तीन प्रकार की होती हे- 1- एक पंक्ति की व्हिप। 2- दो पंक्ति की व्हिप । 3-तीन पंक्ति की व्हिप।
इन तीनों मे तीन पंक्ति की व्हिप महत्वपूर्ण होती हे या कठोर होती है, जिसका प्रयोग अविश्वास प्रस्ताव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे के लिए किया जाता हे तथा उल्लंघन के बाद सदस्य की सदस्यता समाप्त हो जाती हे।व्हिप को लोकतंत्र की मान्यताओं के प्रतिकूल माना जाता हे, क्यूंकि इसमेँ सदस्यो को अपने इच्छा से नहीँ, बल्की दल की इच्छा के अनुसार कार्य करना होता हे जो कि लोकतंत्र की भावनाओं के विरुद्ध हे। |
निष्कर्ष: अविश्वास प्रस्ताव संसदीय परंपरा का एक अहम हिस्सा है। जब पूर्ण बहुमत की सरकारें काम करती थीं तब अविश्वास प्रस्ताव को विपक्ष के प्रतीकात्मक विरोध का एक साधन माना जाता था, जिसका उद्देश्य सरकार की जवाबदेही तय करना होता था। लेकिन गठबंधन सरकारों के दौर में विपक्ष के इस हथियार का महत्त्व काफी बढ़ गया है। जब भी विपक्ष को लगता है कि उसके पास सरकार को मुश्किल में डालने लायक संख्या बल है तो वह अविश्वास प्रस्ताव लेकर आता है। इसके समर्थन में वे सदस्य आते हैं जिन्हें सरकार में विश्वास नहीं होता।
इधर कुछ दशकों से यह देखने में आ रहा है कि सरकारी पक्ष हो या विपक्ष, प्रायः हर मुद्दे पर आपस में उलझ जाते हैं और संसद की कार्यवाही निरंतर बाधित होती रहती है। केवल बेहद आवश्यक विधायी कार्य ही सदन में जगह बना पाते हैं। अनुभवी राजनीतिज्ञ और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा भी था कि संसद के लिये D से शुरू होने वाले आवश्यक तीन शब्दों--डिबेट (चर्चा), डिसेंट (मतभेद) और डिसीजन (निर्णय) में अब चुपचाप एक नया D डिसरप्शन (बाधा) जुड़ गया है। संसदीय लोकतंत्र में में बाधा का कोई स्थान नहीं है। बार-बार बाधा उत्पन्न होने से उपयुक्त ढंग से चर्चा नहीं हो पाती और सार्वजनिक महत्त्व के बहुत से महत्वपूर्ण मुद्दों को सदन की कार्यवाही में स्थान नहीं मिल पाता। संसद में कभी-कभार किसी गंभीर मसले पर हंगामे के कारण कामकाज का कुछ देर तक बाधित होना असामान्य नहीं है, लेकिन निरंतर व्यवधानों के चलते इधर संसद में काफी कम कामकाज हो पाता है। इसके लिये सरकार और विभिन्न दलों के बीच हुई बैठकों में परस्पर सहयोग तथा संसदीय मर्यादा के पालन पर सहमति बनाने की आवश्यकता है।