भारतीय संविधान और कर्तव्य सामान्य अध्ययन-II भारतीय संविधान
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा और वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम जिनेश आई.ए.एस .के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
कैटलिन के शब्दों में “नागरिकता किसी व्यक्ति की वह वैधानिक स्थिति है जिसके कारण वह राजनीतिक रूप से संगठित समाज की सदस्यता प्राप्त कर विभिन्न राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त करता है।” जब व्यक्ति को नागरिकता प्राप्त हो जाती है तो उसके बेहतर निर्वहन के लिये मौलिक अधिकारों की आवश्यकता होती है वहीं राज्य की व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिये राज्य नागरिकों से मौलिक कर्तव्यों के निर्वहन की भी अपेक्षा करता है। गौरतलब है कि बीते दिनों संविधान दिवस के अवसर पर संसद के संयुक्त सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सेवा और कर्तव्यों के मध्य अंतर को स्पष्ट करते हुए संवैधानिक कर्तव्यों के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
कर्तव्य की अवधारणा
- ध्यातव्य है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से एक है जहाँ प्राचीन काल से लोकतंत्र की गौरवशाली परंपरा मौजूद थी। प्रख्यात इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार प्राचीन भारत में गणतंत्र की अवधारणा रोमन या ग्रीक गणतंत्र प्रणाली से भी पुरानी है।
- इतिहासकारों का ऐसा मानना है कि इसी प्राचीन अवधारणा में भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप की कहानी छिपी हुई है।
- प्राचीन काल से ही भारत में कर्तव्यों के निर्वहन की परंपरा रही है और और व्यक्ति के “कर्तव्यों” (kartavya) पर ज़ोर दिया जाता रहा है।
- भगवद्गीता और रामायण भी लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिये प्रेरित करती है, जैसाकि गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि व्यक्ति को "फल की अपेक्षा के बिना अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिये।"
- गांधी जी का विचार था कि “हमारे अधिकारों का सही स्रोत हमारे कर्तव्य होते हैं और यदि हम अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वाह करेंगे तो हमें अधिकार मांगने की आवश्यकता नहीं होगी।”
भारतीय संविधान और कर्तव्य
- भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को संतुलित करता है।
- विदित है कि आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान के भाग IV-A में 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से मौलिक कर्तव्यों का समावेशन किया गया था।
- इससे पूर्व मूल संविधान में मौलिक अधिकारों की अवधारणा को तो रखा गया था, परंतु मौलिक कर्तव्यों को इसमें शामिल नहीं किया गया था।
- वर्तमान में अनुच्छेद 51(A) के तहत वर्णित 11 मौलिक कर्तव्य हैं, जिनमें से 10 को 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था जबकि 11वें मौलिक कर्तव्यों को वर्ष 2002 में 86वें संविधान संशोधन के ज़रिये संविधान में शामिल किया गया था।
- भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा तत्कालीन USSR के संविधान से प्रेरित है।
42वाँ संविधान संशोधन
- यह संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण संशोधन माना जाता है। इसे लघु संविधान के रूप में जाना जाता है। इसके तहत मौलिक कर्तव्यों के अलावा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गए थे-
- इस संशोधन के अंतर्गत भारतीय संविधान में ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता’ जैसे तीन नए शब्द जोड़े गए।
- इसमें राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह को मानने के लिये बाध्य का किया गया।
- इसके तहत संवैधानिक संशोधन को न्यायिक प्रक्रिया से बाहर कर नीति निर्देशक तत्त्वों को व्यापक बनाया गया।
- शिक्षा, वन, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, नाप-तौल और न्याय प्रशासन तथा उच्चतम और उच्च न्यायालय के अलावा सभी न्यायालयों के गठन और संगठन के विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया।
संविधान में उपबंधित मौलिक कर्तव्य
- संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्र गान का आदर करना।
- स्वतंत्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों का पालन करना।
- भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना।
- देश की रक्षा करना और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करना।
- भारत के लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करना जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो। साथ ही ऐसी प्रथाओं का त्याग करना जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।
- हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्त्व देना और संरक्षित करना।
- वनों, झीलों, नदियों और वन्यजीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना और प्राणिमात्र के लिए दयाभाव रखना।
- मानवतावाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा ज्ञानार्जन एवं सुधार की भावना का विकास करना।
- सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करना एवं हिंसा से दूर रहना।
- व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिये प्रयास करना ताकि राष्ट्र लगातार उच्च स्तर की उपलब्धि हासिल करे।
- 6 से 14 वर्ष तक के आयु के अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना। (86वें संविधान द्वारा जोड़ा गया)
मौलिक कर्तव्यों की विशेषताएँ
- मौलिक कर्तव्यों के तहत नैतिक और नागरिक दोनों ही प्रकार के कर्तव्य शामिल किये गए हैं। उदाहरण के लिये ‘स्वतंत्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों का पालन करना’ एक नैतिक कर्तव्य है, जबकि ‘संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रीय गान का आदर करना’ एक नागरिक कर्तव्य है।
- गौरतलब है कि कुछ मौलिक अधिकार भारतीय नागरिकों के साथ-साथ विदेशी नागरिकों को प्राप्त हैं, परंतु मौलिक कर्तव्य केवल भारतीय नागरिकों पर ही लागू होते हैं।
- संविधान के अनुसार मौलिक कर्तव्य गैर-न्यायोचित या गैर-प्रवर्तनीय होते हैं अर्थात् उनके उल्लंघन के मामले में सरकार द्वारा कोई कानूनी प्रतिबंध लागू नहीं किया जा सकता है।
- संविधान के तहत उल्लेखित मौलिक कर्तव्य भारतीय परंपरा, पौराणिक कथाओं,धर्म एवं पद्धतियों से भी संबंधित है।
मौलिक कर्तव्यों की गैर-प्रवर्तनीयता
- गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 37 राज्य के नीति के निर्देशक सिद्धांतों को गैर-प्रवर्तनीय और गैर-न्यायसंगत बनाता है परंतु संविधान के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों के लिये ऐसा कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है।
- हालाँकि संविधान के अंतर्गत इन मौलिक कर्तव्यों को लागू करने के लिये भी कोई विशेष प्रावधान नहीं किये गए हैं इसलिये इनके उल्लंघन पर तब तक किसी भी प्रकार का दंड नहीं दिया जा सकता जब तक संविधान में इसके लिये विशिष्ट प्रावधान न किया जाए।
- संविधान के अनुच्छेद 20(1) के अनुसार किसी व्यक्ति को अपराध का दोषी ठहराए जाने से पूर्व उस अपराध के संबंध में कानून होना अनिवार्य है और उस कानून का उल्लंघन भी होना चाहिये।
- मौलिक कर्तव्यों की गैर-प्रवर्तनीयता के आलोचकों का कहना है कि इसके संबंध में कोई विशिष्ट प्रावधान न होने के कारण इस कानून का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता।
मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व
- गौरतलब है कि दुनिया भर के कई देशों ने ‘जिम्मेदार नागरिकता’ के सिद्धांतों को मूर्त रूप देकर स्वयं को विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बदलने का कार्य किया है।
- इस संबंध में संयुक्त राज्य अमेरिका को सबसे उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है। अमेरिका द्वारा अपने नागरिकों को ‘सिटिज़न्स अल्मनाक’ (Citizens’ Almanac) नाम से एक दस्तावेज़ जारी किया जाता है जिसमें सभी नागरिकों के कर्तव्यों का विवरण दिया होता है।
- इसका एक अन्य उदाहरण सिंगापुर भी है जिसके विकास की कहानी नागरिकों द्वारा कर्तव्यों के पालन से शुरू हुई थी। नतीजतन, सिंगापुर ने कम समय में ही स्वयं को एक अल्प विकसित राष्ट्र से विकसित राष्ट्र में बदल दिया।
- मौलिक कर्तव्य देश के नागरिकों के लिये एक प्रकार से सचेतक का कार्य करते हैं। गौरतलब है कि नागरिकों को अपने देश और अन्य नागरिकों के प्रति उनके कर्तव्यों के बारे में ज्ञात होना चाहिये।
- ये असामाजिक गतिविधियों जैसे- झंडा जलाना, सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना या सार्वजनिक शांति को भंग करना आदि के विरुद्ध लोगों के लिये एक चेतावनी के रूप में कार्य करते हैं।
- ये राष्ट्र के प्रति अनुशासन और प्रतिबद्धता की भावना को बढ़ावा देने के साथ ही नागरिकों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी मदद करते हैं।
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना
- कई आलोचक मौलिक कर्तव्यों की सूची को पूर्ण नहीं मानते हैं, उनके अनुसार मौलिक कर्तव्यों की इस सूची में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे- कर देने और मतदान करने आदि को भी शामिल किया जाना चाहिये।
- कई मौलिक कर्तव्यों को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है। एक आम आदमी के लिये मौलिक कर्तव्यों में मौजूद जटिल शब्दों जैसे समग्र संस्कृति और महान आदर्श आदि को समझना मुश्किल हो सकता है।
- विदित है कि इन कर्तव्यों को कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता और इसलिये आलोचक मानते हैं कि संविधान में इसके होने का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
- इन कर्तव्यों को भारतीय संविधान के भाग IV-A में रखा गया है, जो कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के बाद आता है, इसीलिये जानकारों के अनुसार इन्हें इतना महत्त्व नहीं दिया गया है।
इस संबंध में प्रमुख समितियाँ
स्वर्ण सिंह समिति
- वर्ष 1976 में मौलिक कर्तव्यों हेतु सिफारिश करने के लिये सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में समिति की स्थापना की गई थी, इस समिति की स्थापना का मुख्य उद्देश्य आपातकाल के दौरान मौलिक कर्तव्यों और उनकी आवश्यकता पर सिफारिशें करना था। समिति ने मौलिक कर्तव्यों के शीर्षक के तहत संविधान में एक अलग अध्याय को शामिल करने की सिफारिश की थी, ताकि मौलिक अधिकारों का उपयोग करते हुए नागरिकों को उनके कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाए। समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सरकार ने संविधान में एक अलग अनुच्छेद 51A शामिल किया और उसमें 10 मौलिक कर्तव्य शामिल किये गए। हालाँकि स्वर्ण सिंह समिति ने केवल आठ मौलिक कर्तव्यों को शामिल करने का सुझाव दिया था परंतु 42वें संविधान संशोधन में दस कर्तव्य शामिल थे।
वर्मा समिति
- वर्ष 1998 में गठित वर्मा समिति का उद्देश्य प्रत्येक शिक्षण संस्थान में मौलिक कर्तव्यों को लागू करने और सभी विद्यालयों में इन कर्तव्यों को सिखाने के लिये दुनिया भर में शुरू किये गए कार्यक्रम हेतु एक रणनीति और कार्यप्रणाली तैयार करना था। समिति ने अपनी जाँच में पाया कि देश के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों के गैर-परिचालन का मुख्य कारण इसके कार्यान्वयन हेतु रणनीति की कमी है।
स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 51A के तहत मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए। मौलिक कर्त्तव्यों को देशभक्ति की भावना को बढ़ावा देने तथा भारत की एकता को बनाए रखने के लिये भारत के सभी नागरिकों के नैतिक दायित्वों के रूप में परिभाषित किया गया है। वर्तमान में मौलिक कर्त्तव्यों की संख्या 11 है। वस्तुत: मौलिक कर्त्तव्यों को मूल अधिकारों के समान न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं बनाया गया है, अर्थात् इनके हनन के खिलाफ कोई संस्तुति नहीं है। इसलिये कुछ आलोचकों द्वारा इसे खोखला दस्तावेज़ के रूप में माना जाता है। 1-राष्ट्रीय गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 भारत के संविधान, राष्ट्रीय ध्वज एवं राष्ट्रीय गान के अनादर का निवारण करता है। 2-सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जाति एवं धर्म से संबंधित अपराधों पर दंड की व्यवस्था करता है। 3-वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों के व्यापार पर प्रतिबंध लगाता है। 4-वस्तुत: मूल कर्त्तव्यों का अपना महत्त्व है, जैसे: 5-ये नागरिकों के लिये प्रेरणास्रोत हैं और उनमें अनुशासन और प्रतिबद्धता को बढ़ाते हैं। 6-मूल कर्त्तव्य राष्ट्र विरोधी एवं समाज विरोधी गतिविधियों के खिलाफ चेतावनी के रूप में कार्य करते हैं। 7-मूल कर्त्तव्य, अदालतों को किसी विधि की संवैधानिक वैधता एवं उनके परीक्षण के संबंध में सहायता करते हैं। 8-मूल कर्त्तव्य विधि द्वारा लागू किये जाते हैं। इनमें से किसी के भी पूर्ण न होने पर या असफल रहने पर संसद उचित अर्थदंड या सज़ा का प्रावधान कर सकती है। वस्तुत: मूल कर्त्तव्य केवल खोखला दस्तावेज़ नहीं है बल्कि यह नागरिकों के लिये प्रेरणा के स्रोत एवं सचेतक के रूप में कार्य करते हैं, आवश्यकता है मूल कर्त्तव्यों के संदर्भ में अधिक-से-अधिक जागरूकता बढ़ाने की, जिससे ज़िम्मेदार समाज का निर्माण हो सके। |
मौलिक कर्तव्यों की प्रासंगिकता
- मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल किये जाने के तीन दशक बाद भी, नागरिकों में इसके संबंध में पर्याप्त जागरूकता की कमी देखी जाती है।
- वर्ष 2016 में दायर की गई एक जनहित याचिका में यह तथ्य सामने आया कि सुप्रीम कोर्ट के वकीलों, जजों और सांसदों सहित देश के लगभग 9 प्रतिशत नागरिक संविधान के अनुच्छेद 51 A में वर्णित कर्तव्यों को पूरा नहीं करते हैं। उसका सबसे मुख्य कारण यह है कि उन्हें इस संबंध में जानकारी ही नहीं है।
- वर्तमान में भारत की प्रगति के लिये मौलिक कर्तव्यों के निर्वहन की आवश्यकता पर ज़ोर देना अनिवार्य हो गया है।
- गौरतलब है कि हालिया कई घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि हम देश में भाईचारे की भावना को कायम रखने में असमर्थ रहे हैं।
- ध्यातव्य है कि जब तक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के प्रयोग के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करेंगे तब तक हम भारतीय समाज में लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत नहीं कर पाएँगे।
निष्कर्ष
गैर-प्रवर्तनीय होने के बावजूद भी मौलिक कर्तव्य की अवधारणा भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्रों के लिये महत्त्वपूर्ण है। एक लोकतंत्र को तब तक जीवंत नहीं कहा जाएगा जब तक उसके नागरिक, शासन में सक्रिय भाग लेने और देश के सर्वोत्तम हित के लिये जिम्मेदारियां संभालने हेतु तैयार न हों। अतः संविधान से मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा को समाप्त करना बिल्कुल भी भारतीय हित में नहीं है, आवश्यक है कि इसके विभिन्न पहलुओं में सुधार पर चर्चा की जाए और आवश्यक विकल्पों की खोज की जाए।
प्रश्न: “मौलिक कर्तव्य संविधान में गैर-प्रवर्तनीय होने के बावजूद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।” इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये।