‘त्वरित न्याय’ और ‘त्वरित अन्याय’
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली और उसमें सुधार की आवश्यकता के विभिन्न बिंदुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम जिनेश आई.ए.एस.के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
“मुझे यह देखकर अत्यंत दुख होता है कि देश की न्यायिक व्यवस्था लगभग ध्वस्त होने की कगार पर है। ये शब्द काफी कठोर हैं, परंतु इन शब्दों में काफी पीड़ा निहित है।”
- मुख्य न्यायाधीश पी एन भगवती (26 नवंबर, 1985)
संदर्भ
बीते दिनों बलात्कार के चार आरोपियों की मुठभेड़ में हुई मौत ने देश में ‘एक्स्ट्रा जुडिशियल किलिंग’, ‘फेक एनकाउंटर’ और ‘त्वरित न्याय’ जैसे मुद्दों को एक बार पुनः चर्चा के केंद्र में ला खड़ा किया है। इसी बीच उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी दावा किया है कि बीते 2 वर्षों में राज्य में हुई कुल 5,178 मुठभेड़ों में 103 अपराधियों की मौत हुई है और लगभग 1,859 घायल हो गए। एक्स्ट्रा जुडिशियल किलिंग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि देश की आपराधिक न्याय प्रणाली लगभग ध्वस्त होने की कगार पर है और आम आदमी ने इसमें अपना भरोसा खो दिया है। जानकारों का कहना है कि ऐसे समय में आवश्यक है कि सरकार आपराधिक न्याय प्रणाली में यथासंभव सुधार करे ताकि देश की न्यायिक व्यवस्था पर एक बार फिर आम नागरिक का भरोसा कायम हो सके।
आपराधिक न्याय प्रणाली का अर्थ
- आपराधिक न्याय प्रणाली का तात्पर्य सरकार की उन एजेंसियों से है जो कानून लागू करने, आपराधिक मामलों पर निर्णय देने और आपराधिक आचरण में सुधार करने हेतु कार्यरत हैं।
- वास्तव में आपराधिक न्याय प्रणाली सामाजिक नियंत्रण का एक साधन होती है, क्योंकि समाज कुछ व्यवहारों को इतना खतरनाक और विनाशकारी मानता है कि वह उन्हें नियंत्रित करने का भरपूर प्रयास करता है।
- इस प्रकार की घटनाओं को रोकने, उन्हें नियंत्रित करने और ऐसा करने वालों को दंडित करने का कार्य न्यायिक संस्थानों द्वारा किया जाता है।
- आपराधिक न्याय प्रणाली के मूलतः 3 तत्त्व हैं:
- कानून प्रवर्तन:कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ अपने निर्धारित क्षेत्राधिकार में अपराधों की रिपोर्ट करती हैं और इस संबंध में जाँच करती हैं। साथ ही उनका कार्य सभी आपराधिक साक्ष्यों को एकत्रित करना एवं उनकी रक्षा करना भी होता है। उल्लेखनीय है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों को भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है।
- अधिनिर्णयन:अधिनिर्णयन संस्थाएँ आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अभिन्न अंग हैं और इन्हें मुख्यतः 3 भागों में विभाजित किया गया है:
- न्यायालय:न्यायालय की कार्रवाई न्यायाधीशों द्वारा नियंत्रित की जाती है। इनका मुख्य कार्य यह निर्धारित करना होता है कि किसी आरोपी ने अपराध किया है या नहीं और यदि किया है तो क्या सज़ा दी जानी चाहिये।
- अभियोजन:अभियोजनकर्त्ता वे वकील होते हैं जो न्यायालय की संपूर्ण कार्रवाई में राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। अभियोजनकर्त्ता कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा एकत्रित साक्ष्यों की समीक्षा करता है और यह निर्णय लेता है कि क्या केस छोड़ देना चाहिये या मुकदमा दायर किया जाना चाहिये।
- बचाव पक्ष का वकील:ये सरकार द्वारा दायर मुकदमे के विरुद्ध न्यायालय में आरोपी का प्रतिनिधित्व करते हैं। अदालत के मुकदमे हेतु बचाव पक्ष इन वकीलों को कुछ पारिश्रमिक पर नियुक्त करता है, परंतु यदि आरोपी इस कार्य हेतु समर्थ नहीं है तो न्यायलय द्वारा भी इसकी नियुक्ति की जाती है।
- सुधारगृह या कारावास:इस संस्था का प्रमुख कार्य न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए अपराधियों की निगरानी करना एवं उन्हें बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करना है।
आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य
- आपराधिक घटनाओं को रोकना।
- अपराधियों को दंड देना।
- अपराधियों के पुनर्वास की व्यवस्था करना।
- पीड़ितों को यथासंभव मुआवज़ा देना।
- समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना।
भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code, IPC) भारत के अन्दर भारत के किसी भी नागरिक द्वारा किये गये कुछ अपराधों की परिभाषा व दण्ड का प्रावधान करती है। किन्तु यह संहिता भारत की सेना पर लागू नहीं होती। अनुछेद 370 हटने के बाद जम्मू और कश्मीर में भी अब भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) लागू होगी। आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 जिसे निर्भया एक्ट के प्रचलित नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय विधि है जो भारतीय संसद की लोकसभा एवं राज्यसभा द्वारा क्रमशः 19 मार्च 2013 और 21 मार्च 2013 को पास की गयी और इसके द्वारा भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी), भारतीय साक्ष्य अधिनियम, तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में सेक्सुअल अपराधों के लिए विशेष प्रबन्ध जोड़े गए। इसे 2 अप्रैल 2013 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित किया गया और 3 अप्रैल 2013 से प्रवर्तन में आ गयी। अपने मूल रूप में यह एक अध्यादेश था जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दिल्ली में घटित निर्भया बलात्कार मामले के बाद हुए भारी विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों के चलते प्रवर्तित किया गया। |
आपराधिक न्याय प्रणाली का विकास
- भारत में आपराधिक न्याय का एक लंबा इतिहास है। इस संदर्भ में प्राचीन काल में विभिन्न प्रणालियों का विकास हुआ और विभिन्न शासकों द्वारा उन्हें लागू करने का यथासंभव प्रयास किया गया।
- विदित है कि भारत में आपराधिक कानूनों का संहिताकरण ब्रिटिश शासन के दौरान किया गया था, जो कमोबेश 21वीं सदी में भी समान ही है।
- सर्वप्रथम लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग (1774-85) ने तत्कालीन प्रचलित मुस्लिम आपराधिक न्याय प्रणाली के दोषों और असमानताओं की पहचान की।
- हालाँकि इस संदर्भ में सबसे बड़ा परिवर्तन भारतीय दंड संहिता के निर्माण के साथ आया। भारतीय दंड संहिता (IPC) वर्ष 1860 में लॉर्ड थॉमस मैकाले की अध्यक्षता में गठित भारत के पहले विधि आयोग की सिफारिशों के आधार पर निर्मित की गई थी।
- इसके अलावा दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) को वर्ष 1973 में अधिनियमित किया गया और 1974 में इसे लागू किया गया।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973(Code of Criminal Procedure, 1973) भारत में आपराधिक कानून के क्रियान्यवन के लिये मुख्य कानून है। यह सन् 1973 में पारित हुआ तथा 1 अप्रैल 1974 से लागू हुआ। 'सीआरपीसी' दंड प्रक्रिया संहिता का संक्षिप्त नाम है। जब कोई अपराध किया जाता है तो सदैव दो प्रक्रियाएं होती हैं, जिन्हें पुलिस अपराध की जांच करने में अपनाती है। एक प्रक्रिया पीड़ित के संबंध में और दूसरी आरोपी के संबंध में होती है। सीआरपीसी में इन प्रक्रियाओं का ब्योरा दिया गया है। · धारा 41 बी : गिरफ्तारी की प्रक्रिया तथा गिरफ्तार करने वाले अधिकारी के कर्तव्य · धारा 41 डी : के अनुसार जब कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है तथा पुलिस द्वारा उससे परिप्रश्न किये जाते है, तो परिप्रशनों के दौरान उसे अपने पंसद के अधिवक्ता से मिलने का हक होगा, पूरे परिप्रश्नों के दौरान नहीं। · धारा 46 : गिरफ्तारी कैसे की जायेगी · धारा 51 : गिरफ्तार व्यक्ति की तलाशी · धारा 52 : आक्रामक आयधु का अभिग्रहण - गिरफ्तार व्यक्ति के पास यदि कोई आक्रामक आयुध पाये जाते है तो उन्हें अभिग्रहित करने के प्रावधान है। · धारा 55 ए : इसके अनुसार अभियुकत की अभिरक्षा रखने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह अभियुक्त के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की युक्तियुक्त देख-रेख करे। · धारा 58 : इस धारा के अनुसार पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी जिला मजिस्टेट को या उसके ऐसे निर्देश देने पर उपखण्ड मजिस्टेट को, अपने अपने थाने की सीमाओं के भीतर वारण्ट के बिना गिरफ्तार किये अये सब व्यक्तियों कें मामले के रिपोर्ट करेंगे चाहे उन व्यक्तियों की जमानत ले ली गई हो या नहीं। |
आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता
कानून प्रवर्तन
- देश में अधिकांशतः राज्यों में पुलिस की छवि जनता के साथ मित्रवत न होकर अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाली संस्था के रूप में रही है।
- भ्रष्टाचार आज हमारे देश में संक्रामक रोग की तरह फैल चुका है । जब भ्रष्टाचार हमारे जीवन का एक अंग बन गया हो तो फिर पुलिस व्यवस्था कैसे इससे अछूती रह सकती है। हमारी पुलिस व्यवस्था में सुधार कर उसे बदलते वक्त के अनुरूप बनाना आवश्यक है।
- आँकड़ों के अनुसार एक पुलिस अधिकारी औसतन एक दिन में लगभग 14 घंटे कार्य करता है, जबकिModel Police Act सिर्फ 8 घंटों की ड्यूटी की सिफारिश करता है। इसी वर्ष सितंबर में जारी एक रिपोर्ट में प्रत्येक दूसरे पुलिसकर्मी ने सप्ताह में एक भी अवकाश न मिलने की बात कही थी।
- अत्यधिक कार्यभार के अलावा पुलिस विभाग को आवश्यक संसाधनों के अभाव का भी सामना करना पड़ता है। कुछ पुलिस स्टेशनों में पीने का पानी, स्वच्छ शौचालय, परिवहन, पर्याप्त कर्मचारी और नियमित खरीद के लिये धन जैसी बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है।
- उल्लेखनीय है कि वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट (World Justice Project) द्वारा जारी रूल ऑफ लॉ इंडेक्स (Rule of Law Index) में भारत की रैंकिंग 126 देशों में 68वीं है।
अधिनिर्णयन
- आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, न्यायिक प्रणाली में लगभग 5 करोड़ मामले लंबित हैं। इन कुल लंबित मामलों में से 80 प्रतिशत से अधिक मामले ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में हैं।
- लंबित मामलों का मुख्य कारण भारत में न्यायालयों की कमी, न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्त्तता है।
- राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, ज़िला अदालतों और उच्च न्यायालयों में 20 लाख से अधिक आपराधिक मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
- यदि सिर्फ बलात्कार संबंधी मामलों की बात करें तो NCRB के वर्ष 2017 के आँकड़े बताते हैं कि देश में बलात्कार के कुल 27 लाख मामले अदालतों में विभिन्न चरणों में लंबित हैं।
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं। विधि आयोग की एक रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50 होनी चाहिये।
- गौरतलब है कि इस स्थिति तक पहुँचने के लिये पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी।
- इसी वर्ष नवंबर में जारी ‘इंडियन जस्टिस रिपोर्ट‘ के मुताबिक, देश भर में न्यायाधीशों के कुल स्वीकृत पदों में से लगभग 23 प्रतिशत पद खाली हैं। उल्लेखनीय है कि भारत अपने कुल बजट का मात्र 08 प्रतिशत हिस्सा ही न्यायतंत्र पर खर्च करता है।
- इंडियन जस्टिस रिपोर्ट में यह भी सामने आया था कि वर्ष 2017-18 में देश में कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च मात्र 75 रुपए प्रतिवर्ष था।
सुधारगृह या कारावास
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau-NCRB) के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2015 में भारतीय जेलों में क्षमता से 14 गुना अधिक कैदी बंद थे। वर्ष 2015 के बाद भी इन आँकड़ों में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिली है, परंतु चिंतनीय स्थिति यह है कि इस अवधि में जेलों की संख्या में कुछ खास वृद्धि नहीं हुई है।
उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि जेलों में कैदियों की स्थिति कितनी खराब है। जेल सांख्यिकी 2015 के अनुसार, जेल की खराब स्थिति के कारण वर्ष 2015 में कुल 1,584 लोगों की मृत्यु हो गई थी।
जानकारों के अनुसार, जेलों की खराब स्थिति और उसमें आवश्यकता से अधिक कैदी होने का मुख्य कारण न्यायालयों में लंबित मामलों की एक बड़ी संख्या है। वर्ष 2017 में सरकार ने सूचित किया था कि भारतीय न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बढ़कर 2 करोड़ 60 लाख से अधिक हो गई है।
जेल सुधार के संदर्भ में कई सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने यह प्रश्न उठाया है कि भारतीय राजनेता इस ओर मात्र इसलिये ध्यान नहीं देते क्योंकि जेलों में बंद कैदी उनकी वोट बैंक सीमा में नहीं आते।
आपराधिक न्याय प्रणाली पर गठित प्रमुख समितियाँ
मलीमथ समिति
- भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली (CJS) में सुधार के लिये वर्ष 2000 में सरकार ने मलीमथ समिति का गठन किया था, ग़ौरतलब है कि इस समिति ने वर्ष 2003 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में 158 बदलावों का सुझाव दिया, परंतु इस समिति की सिफारिशें लागू नहीं की गईं।
- समिति ने कहा था कि मौजूदा भारतीय न्याय प्रणाली ‘पीड़ितों को न्याय दिलाने की अपेक्षा अभियुक्तों को सज़ा देने पर ज़्यादा केंद्रित है।’
- समिति की प्रमुख सिफारिशें
- समिति ने उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन करने तथा अनुच्छेद 124 को संशोधित कर न्यायाधीशों के महाभियोग की प्रक्रिया को आसान बनाने का सुझाव दिया था।
- उच्च न्यायालयों में एक अलग आपराधिक डिविज़न होना चाहिये जिसमें केवल आपराधिक कानून में विशेषज्ञता प्राप्त न्यायाधीश की नियुक्ति की जाए।
- समिति की सिफारिश थी कि न्यायालय को आवश्यकता महसूस होने पर किसी भी व्यक्ति को बुलाने का अधिकार होना चाहिये फिर चाहे वह गवाह के रूप में सूचीबद्ध हो या नहीं।
- समिति ने न्यायाधीशों और न्यायालयों की संख्या में वृद्धि करने की भी अनुसंशा की थी।
- समिति के अनुसार, गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु एक अलग गवाह संरक्षण कानून का निर्माण किया जाना चाहिये।
- इसके अलावा अंतर्राज्यीय व अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से निपटने के लिये संघीय कानून लाने, बलात्कारियों के लिये मृत्युदंड की बजाय आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान करने जैसी सिफारिशें भी शामिल थीं।
माधव मेनन समिति
- आपराधिक न्याय सुधार पर माधव मेनन समिति ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 2007 में प्रस्तुत की थी। गौरतलब है कि इस चार सदस्यीय समिति का गठन आपराधिक न्याय प्रणाली पर एक राष्ट्रीय नीति पत्र का मसौदा तैयार करने हेतु किया गया था।
- प्रमुख सिफारिशें
- इस समिति ने संपूर्ण आपराधिक न्याय प्रक्रिया में सुधार की बात की थी।
- इसने देश की सुरक्षा को खतरे में डालने वाले अपराधों से निपटने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर अलग प्राधिकरण स्थापित करने का सुझाव दिया।
आगे की राह
- भारतीय न्याय प्रणाली का वर्तमान स्वरूप कमोबेश ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए न्यायशास्त्र पर आधारित है, जिसे मुख्यतः किसी देश पर शासन करने के उद्देश्य से बनाया गया था। इसीलिये 19वीं सदी में निर्मित इस तंत्र की प्रासंगिकता 21वीं सदी में बहस के योग्य है।
- हमें ‘त्वरित न्याय’ और ‘त्वरित अन्याय’ के बीच की विभाजन रेखा को पहचानना होगा और यह याद रखना होगा कि हमारा समाज कानून एवं संविधान द्वारा शासित होता है, जिसमें सभी को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक उन पर लगाए गए आरोपों को एक निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से सिद्ध न कर दिया जाए।
- भारतीय न्याय तंत्र को प्रक्रियागत परिवर्तनों की आवश्यकता है, ताकि इसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सके।
- प्रक्रियागत परिवर्तन का अभिप्राय बहुत अधिक सत्तावादी बन चुके तंत्र को सरल बनाने से है।
- सभी हितधारकों को समस्याओं की पहचान करनी चाहिये और समस्या को हल करने के सभी यथासंभव प्रयास करने चाहिये।
प्रश्न: भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में निहित समस्याओं की पहचान करते हुए इसमें सुधार हेतु उपायों पर चर्चा कीजिये।