अमेरिका और ईरान के मध्य तनाव

अमेरिका और ईरान के मध्य तनाव

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में ईरान पर अमेरिका द्वारा किये गए हालिया हमले और उसके प्रभावों पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम जिनेश आई.ए.एस. के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

साल की शुरुआत में ही अमेरिका और ईरान के मध्य तनाव अपने चरम पर दिखाई दे रहा है और स्थिति लगभग युद्ध के कगार पर आ पहुँची है। विदित हो कि हाल ही में अमेरिका ने ईरान की कुद्स फोर्स के प्रमुख और इरानी सेना के शीर्ष अधिकारी मेजर जनरल कासिम सुलेमानी सहित सेना के कई अन्य अधिकारियों को बगदाद हवाई अड्डे के बाहर हवाई हमले में मार गिराया है। अमेरिका द्वारा किये गए हवाई हमले को मद्देनज़र रखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में यह खतरा और अधिक बढ़ सकता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि दोनों देशों के संबंधों का विश्लेषण कर यह जानने का प्रयास किया जाए कि इस प्रकार के घटनाक्रम के भारत पर क्या असर हो सकते हैं?

ईरान में प्रसिद्ध थे मेजर कमांडर सुलेमानी

  • ईरान के सबसे प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक कासिम सुलेमानी को मध्य-पूर्व में सबसे शक्तिशाली मेजर जनरल के रूप में देखा जाता था। साथ ही ईरान के भावी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में उनकी दावेदारी भी काफी प्रबल दिखाई दे रही थी।
    • कमांडर सुलेमानी के विषय में यह कहा जा सकता है कि मौजूदा ईरान को समझने के लिये यह ज़रूरी है कि पहले आप कासिम सुलेमानी को समझें।
  • 62 वर्ष के कमांडर सुलेमानी ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (Islamic Revolutionary Guard Corps-IRGC) की कुद्स फोर्स (Quds Force) के प्रमुख थे।
    • विदित हो कि बीते वर्ष अमेरिका ने IRGC को आतंकी संगठन घोषित करते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया था।
  • वर्ष 1998 से कुद्स फोर्स का प्रतिनिधित्व कर रहे कमांडर सुलेमानी न केवल ईरान के लिये खुफिया सूचनाओं को एकत्र करने और गुप्त सैन्य अभियानों के लिये प्रसिद्ध थे बल्कि वे ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खुमैनी से निकटता के लिये भी जाने जाते थे।
  • कमांडर सुलेमानी ने ईरान के हालिया विदेशी अभियानों (मुख्य रूप से सीरिया और इराक) में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ध्यातव्य है कि ईरान के ये विदेशी अभियान सीरिया में बशर अल-असद के शासन को बचाने और दोनों देशों (सीरिया और इराक) में इस्लामिक स्टेट (IS) को हराने हेतु महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स का रोल क्या है?

रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स में 150,000 से ज्यादा सक्रिय जवान हैं. वहीं ईरान की रेगुलर मिलिट्री में जवानों की संख्या 3.5 लाख से ज्यादा है. लेकिन फिर भी कॉर्प्स देश की प्रमुख और ज्यादा प्रभावी फोर्स है. कॉर्प्स की अपनी वायु सेना और नेवी है. मूल रूप से इसका काम ईरान के इस्लामिक सिस्टम की सुरक्षा था. लेकिन आयोतल्लाह से नजदीकी की वजह से कॉर्प्स का दखल पब्लिक ऑर्डर में भी बढ़ चुका है.जैसे-जैसे कॉर्प्स का प्रभाव बढ़ा है, उसकी भूमिका में भी बदलाव देखने को मिला है. अब वो देश के रणनीतिक हथियारों की भी देखरेख करती है. इन हथियारों में देश से बाहर चलाए जा रहे मिशन, मिलिशिया और वो सिस्टम हैं, जिन्हे ईरान के प्रॉक्सी के रूप में देखा जाता है. नेवी और एयरफोर्स के अलावा कॉर्प्स की सबसे प्रभावी ब्रांच कुद्स फोर्स है. इसी फोर्स के जरिए कॉर्प्स अपने साथी देशों और समर्थित मिलिशिया को पैसा और साधन मुहैया कराती है.

 

कमांडर सुलेमानी- प्रारंभिक जीवन

कासिम सुलेमानी का जन्म मार्च 1957 को केरमान प्रांत (ईरान) के एक गाँव में गरीब खेतिहर परिवार में हुआ था। 13 वर्ष की उम्र में वे शहर आ गए और कंस्ट्रक्शन मज़दूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया, बाद में उन्होंने केरमान जल संगठन (Kerman Water Organization) में भी काम किया। सुलेमानी वर्ष 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) में शामिल हो गए। 22 अक्तूबर 1980 को जब सद्दाम हुसैन ने ईरान पर आक्रमण करते हुए ईरान-इराक युद्ध की शुरुआत की तो 8 वर्षीय इस लंबे युद्ध में लगभग 1 मिलियन से अधिक लोग मारे गए। इसी दौरान सुलेमानी भी ईरान की ओर से एक सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए युद्ध क्षेत्र में शामिल हो गए और उन्हें जल्द ही उनकी बहादुरी के लिये जाना जाने लगा तथा साथ ही उनकी रैंक में भी वृद्धि हुई। युद्ध के पश्चात् उन्हें केरमान प्रांत (ईरान) में IRGC के कमांडर के रूप में नियुक्त किया गया और जल्द वे IRGC के कुद्स फोर्स के प्रमुख के पद तक पहुँच गए। सुलेमानी को सीरिया में उस रणनीति के लिये भी बहुत श्रेय दिया गया था जिसने राष्ट्रपति बशर अल-असद को विद्रोही ताकतों को हटाने एवं प्रमुख शहरों और कस्बों को फिर से हासिल करने में मदद की थी।

 

ईरान-अमेरिका संबंधों पर प्रभाव

ईरान और अमेरिका के संबंध बीते कुछ वर्षों से अनवरत बिगड़ते जा रहे हैं और विशेषज्ञों का मानना है कि हालिया घटना इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। अमेरिका के इस हमले ने मध्य-पूर्व को अशांति की कगार पर ला खड़ा किया है। ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा है कि “अमेरिका का यह हमला ईरान को उसका (अमेरिका) विरोध करने के लिये और अधिक मज़बूत बनाएगा”, वहीं मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की मौत को लेकर रिवोल्यूशनरी गार्ड्स का कहना है कि “सभी अमेरिका विरोधी ताकतें मिलकर इस हमले का बदला लेंगी।” अमेरिका के इस हवाई हमले को लेकर यह कहा जा सकता है कि इसका प्रभाव मध्य-पूर्व के उन सभी देशों में देखने को मिलेगा जहाँ ईरान और अमेरिका वर्चस्व के लिये प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं। ऐसे में यह स्पष्ट है कि इससे ईरान और अमेरिका के मध्य संघर्ष में वृद्धि होगी एवं दोनों देशों के संबंध पहले से और अधिक खराब हो जाएंगे।

अमेरिका-ईरान संघर्ष का इतिहास

दोनों देशों के बीच तनातनी तभी से ज़्यादा बढ़ी है, जब अमेरिका ने ईरान के साथ किये परमाणु समझौते से अपने को अलग कर लिया था। हालाँकि दोनों देशों के मध्य संघर्ष का इतिहास काफी पुराना माना जाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इसकी शुरुआत वर्ष 1953 में तब हुई जब अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर ईरान में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग को अपदस्थ कर शाह पहलवी को सत्ता सौंप दी थी। सत्ता परिवर्तन के लगभग 26 वर्षों बाद ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई और एक नए नेता अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी का आगमन हुआ। ज्ञात हो कि खुमैनी, शाह पहलवी के नेतृत्व में ईरान के पश्चिमीकरण और अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता के घोर विरोधी थे। ईरान में हुई वर्ष 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद वहाँ रूढ़िवादिता का प्रसार होता गया और खुमैनी की उदारता में भी अचानक से परिवर्तन आया। उन्होंने विरोधी आवाज़ों को दबाना शुरू कर दिया तथा इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान की लोकतांत्रिक आवाज़ लगभग समाप्त हो गई। इस क्रांति के तत्काल बाद ईरान और अमेरिका के राजनयिक संबंध भी खत्म हो गए। राजधानी तेहरान में ईरानी छात्रों के एक समूह ने अमेरिकी दूतावास को अपने कब्ज़े में ले लिया और 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया। माना जाता है कि इस घटना को खुमैनी का भी अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त था।

हमले पर अमेरिका का पक्ष

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस हमले को “युद्ध रोकने के उद्देश्य से किया गया हमला” करार दिया है। ट्रंप का कहना है कि उन्होंने अमेरिका की सुरक्षा को ध्यान में रख कर इस हमले के आदेश दिये थे। अमेरिका का मानना है कि कमांडर सुलेमानी और उनकी कुद्स फोर्स अमेरिका और कई अन्य देशों के नागरिकों की मौत के लिये ज़िम्मेदार थी। बीते वर्ष 27 दिसंबर की घटना के लिये भी अमेरिका ने ईरान और कमांडर सुलेमानी को ज़िम्मेदार ठहराया था, विदित हो कि इस हमले में कई अमेरिकी तथा इराकी लोगों की मौत हो गई थी।

भारत पर प्रभाव- तेल संकट

मध्य-पूर्व का हालिया घटनाक्रम भारत के हितों को खासा प्रभावित कर सकता है। ज्ञात हो कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है, जो कच्चे तेल की अपनी 80 प्रतिशत से अधिक और प्राकृतिक गैस की 40 प्रतिशत ज़रूरतों को पूरा करने के लिये आयात पर निर्भर रहता है। हालाँकि भारत लगातार तेल सुरक्षा को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है, परंतु विगत कुछ वर्षों में देश का घरेलू तेल और प्राकृतिक गैस उत्पादन काफी धीमा रहा है, जिससे देश और अधिक आयात पर निर्भर हो गया है। ऐसे में तेल बाज़ार को प्रभावित करने वाला कोई भी घटनाक्रम भारत पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। आँकड़ों पर गौर करें तो कमांडर सुलेमानी के काफिले पर हुए हमले के कुछ ही घंटों में वैश्विक बाज़ार में तेल की कीमतों में 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई है। तेल की कीमतों में बढ़ोतरी बिलकुल भी भारत के हित में नहीं है, भारतीय अर्थव्यवस्था की माली स्थिति पहले से काफी खराब है और तेल की बढ़ी हुई कीमतों का बोझ भारत की अर्थव्यवस्था के लिये सहनीय नहीं होगा।

भारत के समक्ष एक राजनयिक चुनौती भी उत्पन्न हो गई है, क्योंकि भारत कभी नहीं चाहेगा कि उसे विश्व के दो महत्त्वपूर्ण देशों में से किसी एक का चुनाव करना पड़े। जहाँ एक ओर भारत अमेरिका जैसी बड़ी शक्ति के साथ अपने संबंधों को खराब नहीं करना चाहेगा, वहीं ईरान भी पश्चिमी एशिया में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर रहा है। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान तक पहुँचने के लिये भारत ईरान में चाबहार बंदरगाह विकसित कर रहा है। ऐसे में इस क्षेत्र में अशांति का माहौल भारत के हितों को प्रभावित कर सकता है।

भारत पर क्या होगा प्रभाव?

खाड़ी क्षेत्र में बढ़ता तनाव क्षेत्रीय सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक तो है ही, ऊर्जा सुरक्षा को भी जबर्दस्त चोट पहुँचा सकता है। कच्चे तेल की कीमत में तेजी से भारत के बजट और चालू खाता घाटे पर नकारात्मक असर पडे़गा। अमेरिका ने ईरान पर बैंकिंग प्रतिबंध भी लगा दिये हैं। इन प्रतिबंधों के चलते ईरान से तेल का आयात करना लगभग असंभव हो गया है। हालाँकि भारत के समक्ष इराक, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) का विकल्प उपलब्ध है, लेकिन ईरान से प्राप्त होने वाला तेल भारत के लिये सस्ता है, साथ ही समीप होने के कारण परिवहन लागत भी अन्य स्रोतों की अपेक्षा कम पड़ती है। ईरान से तेल सप्लाई बाधित होने का असर भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति पर पड़ना तय है।

सऊदी अरब कह चुका है कि वह ओपेक और रूस के नेतृत्व वाले गैर-ओपेक उत्पादक देशों द्वारा उत्पादन कटौती को लेकर बनी सहमति को जारी रखने का इच्छुक है। इन देशों की अगली बैठक 2 जुलाई को होने वाली है। यह स्पष्ट है कि उत्पादन में कटौती से तेल की कीमत और बढ़ेगी। कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि का मतलब है, भारत पर सालाना एक लाख करोड़ से अधिक रुपए का अतिरिक्त बोझ।

खाड़ी का यह संकट ऐेसे वक्त में गहरा गया है, जब अफगानिस्तान में स्थिति बदतर है और मध्य-पूर्व में शांति-प्रक्रिया ठप है। अफगानिस्तान की स्थिरता भारत की सुरक्षा के लिये काफी मायने रखती है। इसके अलावा, अफगानिस्तान तक पहुँचने के लिये भारत ईरान में चाबहार बंदरगाह विकसित कर रहा है। ऐसे में इस क्षेत्र में अशांति का माहौल भारत के हितों को प्रभावित कर सकता है।

 

प्रश्न: “अमेरिका-ईरान के मध्य संघर्ष मध्य-पूर्व में अशांति को बढ़ावा देकर भारत के हितों को प्रभावित करेगा।” चर्चा कीजिये।

 प्रश्न: खाड़ी देशों में बढ़ रहा तनाव ईरान को तो प्रभावित कर ही रहा है, भारत के आर्थिक-सामरिक हितों पर भी इसकी आँच आ सकती है। विवेचना कीजिये।

 

Please publish modules in offcanvas position.