प्रश्न : क्या 17 वीं शताब्दी के आखिर में और 18 वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय उपमहाद्वीप में शासन करने वाले मुगलों ने अपनी धार्मिक नीतियों से भारतीय जनमानस के भावनात्मक एकीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित किया? अकबर की धार्मिक नीतियों के आलोक में व्याख्या कीजिये
उत्तर.
सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 1 : भारतीय विरासत और संस्कृति, विश्व का इतिहास एवं भूगोल और समाज।
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ज़हिर उद-दिन मुहम्मद (14 फरवरी 1483 – 26 दिसम्बर 1530) जो बाबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक मुगल शासक था जिसका मूल मध्य एशिया था । वह भारत में मुगल वंश का संस्थापक था । वो तैमूर लंग का परपोता था और विश्वास रखता था कि चंगेज खां उसके वंश का पूर्वज था । बाबर द्वारा पानीपत की विजय के पश्चात् उसने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी। इस काल में निम्नलिखित धार्मिक प्रवृत्तियाँ प्रचलित थीं-
बाबर एक सुन्नी मुसलमान था लेकिन उसने अपनी धार्मिक मान्यताओं को कभी भी अपनी जनता पर नहीं थोपा और धार्मिक सहिष्णु ही बना रहा।
हुमायूँ भी अपने पिता की तरह धार्मिक सहिष्णु ही बना रहा, अंतर केवल इतना था कि जहाँ बाबर स्वयं को सुन्नी कहता था, वहीं हुमायूँ ने खुद को शिया संप्रदाय से संबद्ध बताया।
हुमायूँ के बाद अकबर ने गद्दी संभाली, यह सभी मुगल शासकों में धार्मिक से सबसे अधिक सहिष्णु था। इनकी धार्मिक सहिष्णुता ने मुगल साम्राज्य को शांति और समृद्धि की नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। अकबर ने धार्मिक एकता को स्थापित करने के लिये ‘तौहीद-ए-इलाही’ की स्थापना की। अकबर प्रथम सम्राट था, जिसके धार्मिक विचारों में क्रमिक विकास दिखायी पड़ता है। उसके इस विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है-
- प्रथम काल (1556-1575 ई.)- इस काल में अकबर इस्लाम धर्म का कट्टर अनुयायी था। जहाँ उसने इस्लाम की उन्नति हेतु अनेक मस्जिदों का निर्माण कराया, वहीं दिन में पाँच बार नमाज पढ़ना, रोज़े रखना, मुल्ला मौलवियों का आदर करना, जैसे उसके मुख्य इस्लामिक कृत्य थे।
- द्वितीय काल (1575-1582 ई.)– अकबर का यह काल धार्मिक दृष्टि से क्रांतिकारी काल था। 1575 ई. में उसने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाने की स्थापना की। उसने 1578 ई. में इबादतखाने को धर्म संसद में बदल दिया। उसने शुक्रवार को मांस खाना छोड़ दिया। 1579 ई. में महजर की घोषणा कर अकबर धार्मिक मामलों में सर्वोच्च निर्णायक बन गया। 'महजरनामा' का प्रारूप शेख़ मुबारक द्वारा तैयार किया गया था। उलेमाओं ने अकबर को ‘इमामे-आदिल’ घोषित कर विवादास्पद क़ानूनी मामले पर आवश्यकतानुसार निर्णय का अधिकार दिया।
- तृतीय काल (1582-1605 ई.)- इस काल में अकबर पूर्णरूपेण “दीन-ए-इलाही” में अनुरक्त हो गया। इस्लाम धर्म में उसकी निष्ठा कम हो गयी। हर रविवार की संध्या को इबादतखाने में विभिन्न धर्मों के लोग एकत्र होकर धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद किया करते थे। इबादतखाने के प्रारम्भिक दिनों में शेख़, पीर, उलेमा ही यहाँ धार्मिक वार्ता हेतु उपस्थित होते थे, परन्तु कालान्तर में अन्य धर्मों के लोग जैसे ईसाई, जरथुस्ट्रवादी,हिंदू,जैन,बोद्ध फ़ारसी, सूफी आदि को इबादतखाने में अपने-अपने धर्म के पत्र को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। इबादतखाने में होने वाले धार्मिक वाद विवादों में अबुल फजल की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।
शाहजहाँ इस्लाम धर्म के प्रति कट्टरता और कुछ हद तक धर्मान्धता रखता था। वह मुसलमानों में सुन्नियों के प्रति पक्षपाती और शियाओं के लिए अनुदार था। शाहजहाँ में हिन्दू जनता के प्रति सहिष्णुता एवं उदारता नहीं थी। शाहजहाँ ने खुले आम हिन्दू धर्म के प्रति विरोध भाव प्रकट नहीं किया, तथापि वह अपने अंत:करण में हिन्दुओं के प्रति असहिष्णु एवं अनुदार था। हालाँकि उत्तरवर्ती मुगलकाल में आंशिक रूप से कुछ घटनाओं से मुगलकाल की सहिष्णुता की प्रवृत्तियों को प्रश्नगत भी किया है।
इन धार्मिक प्रवृत्तियों के साथ-साथ सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन भी जोरो पर चल रहा था। इसके अतिरिक्त पंजाब में सिख धर्म और महाराष्ट्र में महाराष्ट्र धर्म का विकास भी इसी काल में हुआ। सिखों द्वारा ध्यान और विद्या की परंपरा को जारी रखा गया जबकि महाराष्ट्र में तुकाराम के नेतृत्व में विष्णु के विठोवा रूप की उपासना लोकप्रिय हुई।
भावनात्मक एकीकरण की प्रक्रिया पर प्रभाव
मुगलकाल में भावनात्मक एकीकरण की प्रक्रिया उसी सीमा तक प्रभावित हुई जिस सीमा तक वह राजगद्दी हथियाने या व्यक्तिगत संघर्षो तक सीमित रहा। जहाँगीर द्वारा सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव की गिरफ्तारी ने मुगलों और सिखों के बीच संघर्ष को बढ़ाया। ध्यातव्य है कि जहाँगीर का आरोप था कि उसने खुसरो के विद्रोह में पैसे और प्रार्थना से उसकी मदद की थी। सिख गुरु हरगोविंद से भी जहाँगीर का मिलाजुला संबंध रहा। इस तरह ये टकराव मामूली प्रकृति के ही थे जिसने कभी भी सांप्रदायिक स्वरूप नहीं धारण किया।
यद्यपि शाहजहाँ ने अपने शासनकाल में मंदिरों को तोड़कर रूढ़िवादिता का परिचय दिया, फिर भी उसका दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। वह अपने शासन के अंतिम समय में अपने ज्येष्ठ पुत्र दारा से काफी प्रभावित हुआ, जिसने काशी के पंडितों की सहायता से गीता का फारसी अनुवाद कराया।
औरंगज़ेब के शासनकाल में रुढ़िवादी प्रवृत्ति और संकीर्ण दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई फिर भी यह प्रभाव राजनीतिक लड़ाइयों तक ही सीमित रही और अंततः उदार विचारधारों ने अपना प्रभाव पुनः जमाया।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि मुगलकाल में धार्मिक-वैचारिक भिन्नता के वाबजूद भावनात्मक एकीकरण की प्रक्रिया पूर्णतः बाधित नहीं हुई।