गांधीवादी राजनीति के तत्त्वों में समाज के प्रत्येक वर्ग को बाँधे रखने की ताकत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि प्रदान करने की भी अद्भुत क्षमता समाहित है। आलोचनात्मक परीक्षण करें।

 

गांधीवादी राजनीति के तत्त्वों में समाज के प्रत्येक वर्ग को बाँधे रखने की ताकत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि प्रदान करने की भी अद्भुत क्षमता समाहित है। आलोचनात्मक परीक्षण करें।

 

उत्तर :

हल करने का दृष्टिकोणः

• सर्वप्रथम गांधी के भारत आगमन एवं समकालीन संग्राम का परिचय दें।

• गांधीवादी राजनीति के प्रमुख हथियारों, जैसे सत्याग्रह, अहिंसा आदि को उदाहरण एवं आंदोलन सहित वर्णित करें।

• अंत में ये दिखाते हुए कि सभी वर्गों को एकजुट करने में गांधीजी सफल हुए, निष्कर्ष लिखिये।

भारत गाँवों में बसता है। यह बात गांधीजी ने दो वर्षों के भारत भ्रमण के बाद कही। वे भारत के गरीब किसानों, अल्पसंख्यकों, बुनकरों आदि के निजी अनुभवों से भलीभाँति परिचित थे। इनको संगठित करने के उद्देश्य से गांधीजी ने कई नए प्रयोग किये जिनमें सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा आदि शामिल हैं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे गांधी जी का आगमन
सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह के पुजारी महात्मा गांधी का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अमूल्य योगदान रहा है। जनवरी 1915 ई. में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आये। इससे पूर्व उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में शोषण, अन्याय एवं रंगभेद की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन किया था, जिसमें उन्हें अपार सफलता मिली थी। महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, असहयोग एवं सविनय अवज्ञा के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन का संचालन किया। गांधी के नेतृत्व में राष्ट्र एक विराट पुरुष की भांति अपनी चिर निद्रा त्याग कर संघर्ष के लिए उठ खड़ा हुआ। उनकी अभूतपूर्व सफलता का सबसे बड़ा कारण उनका जनता के साथ एकाकार हो जाना था। गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस आंदोलन एक सार्वजनिक आंदोलन बन गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर गांधीजी द्वारा चलाए गए आंदोलनों में असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन प्रमुख रहे। उन्होंने स्वतंत्रता  संग्राम को  नवीन दिशा प्रदान की ।

असहयोग आन्दोलन
सितम्‍बर 1920 से फरवरी 1922 के बीच महात्‍मा गांधी तथा भारतीय राष्‍ट्रीय कॉन्‍ग्रेस के नेतृत्‍व में असहयोग आंदोलन चलाया गया, जिसने भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की।  1919 ई. तक गांधीजी स्वेच्छा से ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था के पक्षधर बने रहे, बस उसमें वह सुधार चाहते थे। परन्तु  जलियांवाला बाग नर संहार सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों में एक उचित न्‍याय मिलने की कोई संभावना नहीं है इसलिए उन्‍होंने ब्रिटिश सरकार से राष्‍ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई और इस प्रकार असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई और देश में प्रशासनिक व्‍यवस्‍था पर प्रभाव हुआ।। असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था। असहयोग आन्दोलन गांधी जी ने 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ किया।  यह आंदोलन अत्‍यंत सफल रहा, क्‍योंकि इसे लाखों भारतीयों का प्रोत्‍साहन मिला। इस आंदोलन से ब्रिटिश प्राधिकारी हिल गए। 

आंदोलन का आरंभ एव विकास 
महात्मा गांधी 1915 ई. से 1919 ई. तक देश के सार्वजनिक तथा राजनीतिक जीवन में अंग्रेजी सरकार के एक सहयोगी के रूप में ही कार्य करते रहे, किंतु 1920 ई. में गांधीजी के राजनीतिक जीवन में एक परिवर्तनकारी मोड़ आया। कुछ घटनाओं और अन्य परिस्थितियों ने उन्हें सहयोगी से असहयोगी बना दिया।सितम्बर  1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने सरकार के साथ असहयोग और मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के अंतर्गत निर्मित व्यवस्थापिका सभाओं के बहिष्कार का प्रस्ताव रखा। गांधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए ऐनी बेसेन्ट ने कहा कि, "यह प्रस्ताव भारतीय स्वतंत्रता को सबसे बड़ा धक्का है।" गांधी जी के इस विरोध तथा समाज और सभ्य जीवन के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा का सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मदनमोहन मालवीय, देशबन्धु चित्तरंजन दास, विपिनचन्द्र पाल, मुहम्मद अली जिन्ना, शंकर नायर, सर नारायण चन्द्रावरकर ने प्रारम्भ में विरोध किया। फिर भी अली बन्धुओं एवं मोतीलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया। यही वह क्षण था, जहाँ से गाँधी युग की शुरुआत हुई। 
आन्दोलन शुरू करने से पहले गांधी जी ने कैसर-ए-हिन्द पुरस्कार को लौटा दिया, अन्य सैकड़ों लोगों ने भी गांधी जी के पदचिह्नों पर चलते हुए अपनी पदवियों एवं उपाधियों को त्याग दिया। राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित जमनालाल बजाज ने भी यह उपाधि वापस कर दी। असहयोग आन्दोलन गांधी जी ने 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ किया। पश्चिमी भारत, बंगाल तथा उत्तरी भारत में असहयोग आन्दोलन को अभूतपूर्व सफलता मिली। विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए अनेक शिक्षण संस्थाएँ जैसे काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, बनारस विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि स्थापित की गईं।

असहयोग आन्दोलन चलाए जाने के कारण
असहयोग आंदोलन चलाने के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

(1)    रौलेट ऐक्ट

 प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार का तन,मन, धन से सहयोग किया। युद्ध समाप्ति के बाद सरकार को डर था कि क्रांतिकारी नेताओं से प्रभावित होकर भारतीय क्रांतिकारी भी सरकार के तख्ते को उखाड फेंकने का प्रयास करेंगे। 1917 ई. में सरकार ने रौलेट ऐक्ट बनाया। ऐक्ट की व्यवस्थाएँ बहुत कठोर थीं। इसके अंतर्गत सरकार किसी भी संदेहात्मक व्यक्ति को मुकदमा चलाए बिना नजरबंद कर सकती थी। साथ ही उस पर गुप्त रूप से मुकदमा चलाकर उसे दंडित कर सकती थी। किसी भी व्यक्ति के निवास तथा उसकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखा जा सकता था।

 फरवरी 1919 ई. में जब रॉलेट ऐक्ट पास हुआ, पूरे भारत ने एक स्वर से इस विधेयक का विरोध किया। उदारवादियों ने भी इसका विरोध किया। गांधीजी ने कहा कि यदि रॉलेट एक्ट की सिफारिशों को व्यावहारिक रूप दिया गया तो मैं सत्याग्रह शुरू कर दूँगा। किंतु सरकार ने गांधीजी की उपेक्षा करते हुए 21 मार्च 1919 ई. को रौलेट ऐक्ट को लागू कर दिया। गांधीजी ने इसे काले कानून की संज्ञा दी, साथ ही एक्ट का विरोध करने के लिए 6 अप्रैल 1919 की तिथि निश्चित की। निश्चित तिथि को देश में हड़तालें और जन सभाएँ हुईं।  

(2)    पंजाब में अत्याचार

रॉलेट एक्ट के विरुद्ध 6 अप्रैल 1919 ई. को देशव्यापी हड़ताले हुईं। दिल्ली में यह हड़ताल 30 मार्च को आयोजित की गई, जिससे पुलिस और हड़तालियों के बीच मुठभेड़ हो गई। मुठभेड़ में आठ व्यक्ति मारे गए। गांधीजी को दिल्ली पहुँचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें मुम्बई भेज दिया गया। गांधीजी की गिरफ्तारी की खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई। पंजाब में दंगे प्रारम्भ हो गए। किंतु सरकार ने उन्हें निर्दयतापूर्वक दबा दिया। अमृतसर में डॉ. किचलू तथा डॉ. सत्यपाल को गिरफ्तार कर किसी अज्ञात स्थान पर भेज दिया गया। इस खबर ने अमृतसर के लोगों में गहरी उत्तेजना पैदा कर दी।

(3)    जलियांवाला बाग हत्याकांड

गांधीजी को असहयोगी बनाने वाली घटनाओं में सबसे महत्वपूर्ण घटना जलियांवाला बाग का हत्याकांड थी। 1919 ई. के आरम्भ में हिंदू-मुसलमान-सिखों की अभूतपूर्व एकता देखने को मिली थी, वह भी ऐसे प्रांत में जो इसके पहले और बाद में साम्प्रदायिक अलगाव के लिए जाना जाता था। 12 अप्रैल, 1919 को ब्रिटिश सरकार ने सार्वजनिक सभा पर प्रतिबंध लगाया, किंतु प्रतिबंध की सूचना सम्पूर्ण नगर में नहीं दी गई। 13 अप्रैल 1919 को राजनीतिक नेताओं ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया। हजारों की संख्या में लोग एकत्र होने लगे। सेना के अधिकारियों ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की। शांतिपूर्वक सभा चल रही थी कि जनरल डायर 200 भारतीय और 50 अंग्रेज सिपाहियों को लेकर बाग में घुस आया। उसने बिना किसी प्रकार की चेतावनी दिए निहत्थी जनता पर गोलियाँ बरसानी शुरु कर दीं। दस मिनट तक निर्ममतापूर्वक गोलियों की बौछार होती रही, जिसमें लगभग एक हजार लोग मारे गए। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मृतकों की कुल संख्या 397 और घायलों की मात्र 1200 थी। निहत्थी जनता पर गोली चलाने का उद्देश्य वहाँ पर मौजूद लोगों पर ही नहीं बल्कि खास तौर से पूरे पंजाब के लोगों पर सैनिक दृष्टि से नैतिक प्रभाव डालना था। कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय गोली कांड  का उद्देश्य जनता को आतंकित करना था जिससे वह ब्रिटिश सरकार का विरोध करना छोड़ दे। जलियांवाला बाग हत्याकांड की घटना से गांधीजी की आत्मा को गहरा आघात पहुँचा। गांधीजी के लिए तो क्या, इस घटना ने पूरे विश्व को प्रभावित किया।

(4)    मॉर्शल लॉ 

जलियांवाला बाग हत्याकांड के दो दिन बाद ही पंजाब के बीस जिलों में मॉर्शल लॉ लागू किया गया। नलों में पानी बंद कर दिया गया और बिजली की लाइनें काट दी गई । जिस गली में श्रीमती शेरवुड पर आक्रमण किया गया था, उस गली से निकलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को पेट के बल होकर निकलना पड़ता था। रेलों में तीसरे दर्जे की टिकटें बेचने पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिए। सार्वजनिक स्थानों पर चार व्यक्तियों से अधिक का खड़ा होना अथवा एक साथ चलना रोक दिया गया।  कई स्थानों पर किसानों की भीड़ पर गोलियाँ चलायी गई।

(5)  हंटर कमेटी की रिपोर्ट से उत्पन्न असंतोष

 पंजाब सरकार के अत्याचारों की चारों तरफ घोर निंदा की गई तथा देश के कोने-कोने से इसकी जांच की मांग की गई। फलस्वरूप सरकार ने विवश होकर लार्ड हंटर की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। हंटर समिति के सामने बयान देते हुए पंजाब के वाणिज्य मंडल के उपाध्यक्ष लाला गिरधारी लाल ने बताया था कि “मैंने सैकड़ों व्यक्तियों को यहीं मरा हुआ देखा । सबसे खराब बात यह थी कि गोली उस तरफ से चलाई जा रही थी, जिससे होकर लोग भाग रहे थे --- खून की धारा बह रही थी, अधिकारियों ने मरे हुए और घायलों की देखभाल के लिए कोई भी व्यवस्था नहीं की थी। हंटर आयोग के सामने डायर ने कहा था कि उसे केवल इस बात का बड़ा दु:ख था कि उसका गोला-बारूद खत्म हो गया था और संकरी गलियों के कारण बाग में बख्तरबंद गाड़ी नहीं जा सकती थी क्योंकि अब सवाल केवल भीड़ को तितर-बितर करने का नहीं रह गया था, बल्कि नैतिक प्रभाव उत्पन्न करना आवश्यक था।

हंटर समिति ने अपने प्रतिवेदन में सरकार के अत्याचारों पर पर्दा डालने की चेष्टा की। रिपोर्ट में कहा गया कि जनरल डायर ने बिल्कुल नेकनीयति से कार्य किया, किन्तु उसने जिन साधनों का प्रयोग किया, वे अनुचित थे।  फलस्वरूप सरकार ने जनरल डायर को भारत सरकार की नौकरी से अलग कर दिया।  लेकिन सरकार ने उसके द्वारा दी गई सेवाओं के लिए सम्मान की तलवार तथा 2000 पौंड भेंट की। इन सब बातों का गांधी पर प्रतिकूल  प्रभाव पड़ा और उनकी विचारधारा ने एक क्रांतिकारी मोड़ लिया।

(6)    खिलाफत का प्रश्न

प्रथम विश्वयुद्ध में टर्की जर्मनी के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा था। युद्धकाल में भारतीय मुसलमानों से सहयोग लेने के लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने आश्वासन दिया था कि युद्ध की समाप्ति के बाद इग्लैण्ड टर्की के विरुद्ध प्रतिरोध की नीति नहीं अपनाएगा और न ही वह टर्की के साम्राज्य को छिन्न- भिन्न होने देगा। लेकिन अंग्रेज  अपने वायदों से मुकर गए। उन्होंने टर्की के साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया। टर्की का सुल्तान जो विश्व के मुसलमानों का खलीफा था, अब वह एक कैदी मात्र रह गया । इससे भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजों के प्रति असंतोष की भावना बढ़ी। गांधीजी ने खिलाफत के प्रश्न पर मुसलमानों के विचारों का समर्थन किया। सन् 1918 ई. में हिंदुओं और मुसलमानों ने खिलाफत के प्रश्न पर विचार करने के लिए जो एक संयुक्त सम्मेलन बुलाया, उसमें खिलाफत आंदोलन का महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया गया।  गांधी जी ने कहा “ आज सरकार खिलाफत जैसे प्रश्न पर धोखा देती है तो हम उससे असहयोग करने को बाध्य हैं। यह पहला अवसर था जब गांधीजी ने असहयोग की रणनीति का सहारा लिया” ।

( 7) प्रथम विश्वयुद्ध का परिणाम

प्रथम विश्वयुद्ध  के दौरान मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की कि उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए युद्ध में भाग लिया है तथा वे आत्मनिर्णय के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। युद्ध समाप्ति के बाद कई पराधीन प्रदेशों  में लोकतंत्र की स्थापना की मांग की गई तथा आत्मनिर्णय के सिद्धांत के आधार पर कई राज्यों  का निर्माण किया गया। परिणामत: पराधीन देशों में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ तथा राष्ट्रीय आंदोलनों को बल मिला।  भारत भी इस घटना क्रम से अछूता नहीं रह सका। युद्ध के बाद उसके राष्ट्रीय आंदोलन को भी एक नई दिशा मिली।

(8)  देश की आर्थिक दुर्दशा

युद्ध में अत्यधिक आर्थिक व्यय वहन करने के कारण, भारत सरकार की आर्थिक हालत खराब हो गई । वह कर्ज के बोझ से दब गई । मुद्रा स्फीति  के कारण अनिवार्य वस्तुओं की कीमतों में भी अत्यधिक वृद्धि हो गई। जनसाधारण के लिए जीवन निर्वाह कठिन हो गया। भुखमरी की नौबत आ गई।किसानों और मजदूरों  की दशा तो और भी अधिक दर्दनाक थी। चम्पारण में किसानों और अहमदाबाद में मजदूरों की आर्थिक दुर्दशा ने गांधी को सत्याग्रह की रणनीति के परीक्षण का अवसर दिया था।

(9)  मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों से असंतोष

प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने यह आश्वासन दिया था कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में पर्याप्त सांविधानिक सुधार होंगे। सन् 1917 में भारत सचिव मांटेग्यू ने यह घोषणा की थी कि “ब्रिटिश सरकार की यह नीति है कि भारतीयों को प्रशासन की हर शाखा में अधिक से अधिक भागीदारी दी जाए और स्वशासन की ऐसी संस्थाओं का क्रमिक विकास किया जाए, जिससे अधिकाधिक प्रगति करते हुए स्वशासन प्रणाली भारत में स्थापित हो और वह ब्रिटिश सरकार के एक अंग के रूप में रहे। “इस उद्घोषणा से भारतीयों के मन में बड़ी आशाएँ  बंधी थी, किंतु जब 1918 ई. में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार योजना प्रकाशित हुई तो उसमें भारतवासियों की आशा पर पानी फिर गया। उक्त योजना द्वारा न तो भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना की व्यवस्था की गई थी और न ही उसमें भारतीय प्रशासन पर से गृहशासन के नियंत्रण के ढीले होने के चिह्न थे। फलत: भारतवासी अत्यंत ही क्षुब्ध एवं कुपित हो गए। तिलक ने कहा कि ये सुधार संतोषप्रद ही नहीं, निराशाजनक भी हैं” ।

(10)  प्लेग और इंफ्लुएंजा

जनता की आर्थिक दशा तो शोचनीय हो ही गई थी, उसी समय प्लेग और इनफ्लुएंजा के प्रकोप ने उसे बदत्तर बना दिया। बहुत से व्यक्तियों को जान से हाथ धोना पड़ा। सरकार ने इनकी रोकथाम के लिए जो प्रयास किए, वे अपर्याप्त तथा असंतोषजनक थे।

(11)   अकाल

1917 ई. में अनावृष्टि के कारण देश में अकाल फैल गया।अनेक व्यक्ति अकाल के ग्रास बन गए। सरकार की ओर से जनता का दुख दूर करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए। जनता में असंतोष बढ़ता ही गया।

(12)   सरकार का दमन चक्र

 सरकार एक ओर से जनता को राजनीतिक सुधारों का आश्वासन दे रही थी तो दूसरी ओर राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए कड़े से कड़े कदम भी उठा रही थी । प्रेस ऐक्ट, सेडीशन ऐक्ट, एक्सप्लोसिव सब्स्टेंस ऐक्ट, क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट ऐक्ट आदि दमनकारी कानूनों का निर्माण राष्ट्रीय आंदोलनों को कुचलने के उद्देश्य से ही किया गया था  

क्रांतिकारियों को फांसी, काला पानी और कारावास की सजा देने में कोई कसर उठा नहीं रखी गई।  होमरूल आन्दोलन जैसे वैधानिक एवं शांतिपूर्ण कार्यक्रम को भी निर्ममतापूर्वक दबा दिया गया। पंजाब में डायर का दमनचक्र बड़ी तेजी से और कठोरता से चला। सरकार की दमनकारी नीति ने जनता के असन्तोष एवं विद्रोह की लहर तेज कर दी।


असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम 

असहयोग आंदोलन चलाने के लिए गांधीजी ने दो प्रकार के कार्यक्रम बनाये-

(1)  निषेधात्मक तथा (2) रचनात्मक कार्यक्रम

निषेधात्मक कार्यक्रम 

निषेधात्मक कार्यक्रम का अर्थ था सरकार के प्रति असहयोग करना। इसके अंतर्गत निम्नलिखित कार्यक्रम को शामिल किया गया था –

(1)सरकारी उपाधियों का बहिष्कार

(2)विधान परिषदों का बहिष्कार

(3) विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

(4) सरकारी तथा सरकार से सहायता प्राप्त विद्यालयों का बहिष्कार

(5) सरकारी अदालतों का बहिष्कार

(6) कर न देना

(7) दमनकारी कानूनों की सविनय अवज्ञा

(8) सरकारी सेवाओं का बहिष्कार

(9) सरकारी दरबारों, उत्सवों और सरकार के सम्मान में आयोजित सरकारी या गैर सरकारी उत्सवों में शामिल न होना।

रचनात्मक कार्यक्रम 

रचनात्मक कार्यक्रम के अंतर्गत उन कार्यों को शामिल किया गया जिनसे जनता के कल्याण के साथ-साथ देश में राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि हो। प्रमुख रचनात्मक कार्यक्रम थे –

(1)     कांग्रेस के झंडे के नीचे देश को संगठित करना

(2)     सरकारी अदालतों का बहिष्कार करके पंचायतों की स्थापना करना।

(3)     हिंदू-मुस्लिम एकता की पुनर्स्थापना करना।

(4)     विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके खादी का प्रयोग करना।

(5)     राष्ट्रीय स्कूलों एवं कॉलेजों की स्थापना करके उसमें विद्यार्थियों को भेजना

(6)     मद्यपान का बहिष्कार करना

(7)     दलितों का उत्थान करना 

आन्दोलन का चरमोत्कर्ष 

1921 ई. में असहयोग आन्दोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। बहिष्कार आन्दोलन के दौरान एक कार्यवाही जो बहुत लोकप्रिय हुई, हालाँकि वह मूल कार्यक्रम में नहीं थी, वह थी-ताड़ी की दुकानों पर धरना। सरकार ने असहयोग आन्दोलन को कुचलने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। 4 मार्च, 1921 ई. को ननकाना के एक गुरुद्वारे, जहाँ पर शान्तिपूर्ण ढंग से सभा का संचालन किया जा रहा था, पर सैनिकों के द्वारा गोली चलाने के कारण 70 लोगों की जानें गई। 1921 ई. मेंलॉर्ड रीडिंग के भारत के वायसराय बनने पर दमन चक्र कुछ और ही कड़ाई से चलाया गया। मुहम्मद अली जिन्ना,मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास, लाला लाजपत राय, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, राजगोपालाचारी, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल जैसे नेता गिरफ़्तार कर लिये गए। मुहम्मद अली पहले नेता थे, जिन्हें सर्वप्रथम 'असहयोग आन्दोलन' में गिरफ़्तार किया गया। 
अप्रैल, 1921 में प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन पर उनका सर्वत्र काला झण्डा दिखाकर स्वागत किया गया। गांधी जी ने अली बन्धुओं की रिहाई न किये जाने के कारण प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन का बहिष्कार किया। 17 नवम्बर, 1921 को जब प्रिन्स ऑफ़ वेल्स का बम्बई, वर्तमान मुम्बई आगमन हुआ, तो उनका स्वागत राष्ट्रव्यापी हड़ताल से हुआ। इसी बीच दिसम्बर, 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यहाँ पर असहयोग आन्दोलन को तेज़ करने एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने की योजना बनी।

सरकार का दमन चक्र 


आंदोलन की प्रगति के साथ-साथ आंदोलन को दबाने के लिए सरकार का दमन चक्र बहुत तेजी से चलने लगा। सभी प्रमुख कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं को जेल की ‘चार दीवारी’ के भीतर डाल दिया गया। सार्वजनिक संस्थाओं को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। सन् 1921 के अन्त तक, राजनीतिक कैदियों की संख्या पचास हजार हो गई।फरवरी 1922  को महात्मा गांधी ने वायसराय को एक पत्र लिखकर सरकार की कठोर नीति की निंदा करते हुए उसे चेतावनी दी कि यदि सरकार अपनी नीति में परिवर्तन  नहीं करती तो सात दिनों के अंदर वह बारदोली में सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारम्भ कर देंगे। किंतु अभी सात दिन की अवधि समाप्त भी नहीं हुई थी कि संयुक्त प्रांत के गोरखपुर में चौरी चौरा की अप्रत्याशित हिंसक घटना घटी। पुलिस के अंधा-धुंध गोली चलाने के जबाब में कुछ किसानों ने पुलिस थाने में आग लगा दी जिसमें 22 सिपाहियों की मृत्यु हो गई। बारदोली में तुरंत कांग्रेस कार्यकारिणी का कार्यक्रम वापस ले लिया गया तथा उसके स्थान पर एक रचनात्मक कार्यक्रम अपनाने पर सहमति हुई।

आन्दोलन स्थागित कर देने से गांधीजी की काफी आलोचना हुई।गांधीजी के विरुद्ध फैले हुए असन्तोष से लाभ उठाकर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार 12 फरवरी,1922 ई. को असहयोग आंदोलन स्थागित हो गया।

 

आन्दोलन का महत्व 

असहयोग आंदोलन यद्यपि अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ तथापि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में असहयोग आन्दोलन एक विशिष्ट स्थान रखता आंदोलन की सफलताएँ या महत्व को निम्नलिखित रूप में व्यक्त कर सकते  है।

(1)     असहयोग आंदोलन ने पहली बार देश की जनता को राजनीतिक मंच पर एकत्रित किया। आन्दोलन में किसान, मजदूर, दस्तकार, व्यापारी, व्यवसायी, कर्मचारी, पुरुष, महिलाएँ, बच्चे, बूढ़े आदि सभी प्रकार के लोगों ने भाग लिया जिससे यह वास्तव में एक जनांदोलन में परिवर्तित हो गया।

(2)     आंदोलन ने देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक जनता को कांग्रेस के झंडे के नीचे संगठित किया।

(3)     भारतवासियों में देश प्रेम, राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत हुई।

(4)     आंदोलन ने लोगों में स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम तथा स्वाभिमान की भावना का संचार किया।लोग स्वदेशी वस्त्रों को धारण करने लगे तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने लगे।

(5)     आंदोलन से जनता में आत्मविश्वास, शक्ति, स्फूर्ति का प्रादुर्भाव हुआ।

(6)     आन्दोलन में बड़े पैमाने पर मुसलमानों ने भी भाग लिया, मुसलमानों की भागीदारी ने आंदोलन को जनांदोलन का रूप दिया किंतु बाद में साम्प्रदायिकता का विकास होने पर हिंदू-मुस्लिम एकता बरकरार नहीं रह सकी।

       जवाहरलाल नेहरू का कहना था कि “गांधी के असहयोग आंदोलन ने आत्मनिर्भरता एवं अपनी शक्ति संचित करने का पाठ पढ़ाया। सुभाष चंद्र बोस ने भी स्वीकार किया कि गांधीजी ने कांग्रेस को एक सक्रिय संस्था के रूप में परिवर्तित किया।अब यह केवल कुछ पढ़े-लिखे लोगों की संस्था मात्र नहीं रही, बल्कि इसका पैगाम समाज के निचले से निचले हिस्से तक पहुँच गया।

 

भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में गांधीजी का आगमन 1917 में हुआ। हालाँकि वे 1915 में ही भारत आ चुके थे, किंतु सक्रिय रूप से उनका भारतीय आंदोलनों से जुड़ाव चंपारण के आंदोलन से ही शुरू हुआ। गांधीवादी राजनीति का अर्थ है गांधी के बताए मूल्यों एवं आदर्शों में विश्वास। गांधीजी ने अपने मूल्य एवं आदर्शों की स्थापना स्वयं के अनुभव से की थी। ‘सत्याग्रह’ नामक हथियार का विकास गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सफलतापूर्वक किया था। सत्य एवं अहिंसा समूचे गांधीवादी आंदोलन का सार था जिसने आमलोगों को इन आंदोलनों से जुड़ने के लिये प्रेरित किया।

गांधीवादी राजनीति मानवतावाद पर आधारित थी। असहयोग आंदोलन के लिये भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता की महती आवश्यकता थी। उस समय गांधीजी ने स्वयं को खिलाफत आंदोलन से जोड़कर स्वयं को मजबूत किया। दूसरा महत्त्वपूर्ण हथियार था- सत्याग्रह। तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय हथियार उठाने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बिना मनोबल नीचे किये, संघर्ष के लिये तत्पर रहने का असीम धैर्य उन्हें ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांतों से ही मिला। तीसरी बात थी- गांधीवादी राजनीति की देशी अवधारणा, जिसमें गांधीजी ने हिंदी भाषा की वकालत की, कुटीर उद्योगों की बात की, खादी की बात की, जिसका भारत के विशाल जनसमूह ने समर्थन किया।

किसानों एवं निम्न वर्ग के समर्थन के बाद भी बिना उच्च वर्ग के समर्थन के आंदोलन अधूरा रह जाता। ऐसे में गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था का भी समर्थन किया एवं समाज के उच्च वर्ग का विश्वास जीता। 1932 में जब अंग्रेज़ों ने दलितों के लिये अलग प्रतिनिधित्व का कानून बनाया तो गांधीजी ने पूना जेल में आमरण अनशन शुरू कर दलितों को साथ लाने में सफलता प्राप्त की। इतना ही नहीं, गांधीजी ने महिलाओं को भी सक्रिय आंदोलन से जोड़ने में सफलता प्राप्त की।

अतः कहा जा सकता है, गांधीवादी राजनीति के तत्त्वों में समाज के प्रत्येक वर्ग को बाँधे रखने की ताकत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि प्रदान करने की भी अद्भुत क्षमता समाहित है।

 

Please publish modules in offcanvas position.