Q.पल्लवों की स्थापत्य शैली धार्मिक भावनाओं से प्रेरित प्रतीत होती है, फिर भी उनकी सांस्कृतिक उपलब्धि भारतीय इतिहास को गौरवान्वित करने के साथ अमूल्य धरोहर का एहसास देती है।विवेचना कीजिये

Q.पल्लवों की स्थापत्य शैली धार्मिक भावनाओं से प्रेरित प्रतीत होती है, फिर भी उनकी सांस्कृतिक उपलब्धि भारतीय इतिहास को गौरवान्वित करने के साथ अमूल्य धरोहर का एहसास देती है।विवेचना कीजिये #IAS #RAS #CDS #NDA #UPSC #HISTORY_OPTIONAL #UDAIPUR #MEWAR #jineshiasacademy

उत्तर :

हल करने का दृष्टिकोण

o   भूमिका

o   पल्लव राजवंश

o   स्थापत्य के क्षेत्र में योगदान तथा अन्य क्षेत्रों में योगदान

o   निष्कर्ष

पल्लव काल न सिर्फ स्थापत्य कला अपितु अन्य विलक्षण सांस्कृतिक उपलब्धियों के संदर्भ में प्रगति का काल रहा है। सातवाहनों के ध्वंसावशेषों पर निर्मित होने वाले पल्लव वंश की स्थापना सिंहविष्णु ने की थी। पल्लवों ने प्रारंभिक पल्लव शासकों (250 ई.) से लेकर नौवीं शताब्दी के अपने पतन के अंतिम समय तक शासन किया। सातवाहन साम्राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में शासन करने वाले पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम थी। पल्लवों ने वास्तुकला के साथ-साथ संगीत, नृत्य एवं चित्रकला के क्षेत्र में भी प्रगति की, इस प्रकार पल्लव वास्तुकला का इतिहास में काफी महत्त्व है।

पल्लव वंश  

 गुप्त वंश के बाद हर्षवर्धन  के अतिरिक्त कोई ऐसी शक्ति नहीं थी, जो उत्तर भारत  की राजनीतिक स्थिति को स्थिरता प्रदान कर सकती थी। इस समय दक्षिण भारत में दो महत्त्वपूर्ण वंश- कांची के पल्लव वंश एवं  बादामी या वातापि के चालुक्य वंश शासन कर रहे थे।  

उत्पत्ति मतभेद

कांची के पल्लव वंश के विषय में प्राथमिक जानकारी हरिषेण की 'प्रयाग प्रशस्ति' एवं  ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से मिलती है। संभवतः पल्लव लोग स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के पूर्व  सातवाहनों के सामन्त थे। इनके प्रारम्भिक अभिलेख  प्राकृत भाषा में एवं बाद में  संस्कृत में मिले है। पल्लवों की उत्पत्ति के संदर्भ में अन्तिम पंक्ति लेखक प्रो. राव भी यह मानने पर विवश हो गए हैं कि, “पल्लवों की उत्पत्ति का प्रश्न विवादग्रस्त एवं अन्धकार में निमग्न है।” पल्लव वंश के राजाओं का मूल कहाँ से हुआ, इस सवाल को लेकर ऐतिहासिकों ने बहुत तर्क-वितर्क किया है। एक मत यह है, कि पल्लव लोग पल्हव या  पार्थियन थे, जिन्होंने  शकों के कुछ समय बाद  भारत में प्रवेश कर उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए थे। शक राजा  रुद्रदामा का एक अमात्य सौराष्ट्र पर शासन करने के लिए नियुक्त था, जिसका नाम सुविशाख था। वह जाति से पल्हव या पार्थियन था। सम्भवतः इसी प्रकार के पल्हव अमात्य सातवाहन सम्राटों की ओर से भी नियत किये जाते थे, और उन्हीं में से किसी ने दक्षिण के पल्लव राज्य की स्थापना की थी। अब प्रायः ऐतिहासिक लोग पल्लवों का पल्हवों या पार्थियनों से कोई सम्बन्ध नहीं मानते।काशी प्रसाद जायसवाल  के अनुसार पल्लव लोग  ब्राह्मण थे, क्योंकि वे अपने को  द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा का वंशज मानते थे।

वंश मान्यता

पल्लव अभिलेखों में भी पल्लवों को भारद्वाजगोत्रीय तथा अश्वात्थामा का वंशज कहा गया है। तालगुण्ड अभिलेख उन्हें क्षत्रिय कहता है। प्रो. आर. सत्यनमैय्यर मानते है कि पल्लव  अशोक के साम्राज्य के एक प्रांत  टोण्डमण्डलम से ही उत्पन्न हुए थे। पल्लवों की उत्पत्ति का यही विचार अब तक सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ऐसा लगता है कि, पल्लवों में उत्तरी  भारत के भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मणों तथा  कांची के आस-पास के राजवंशों के रक्त का मिश्रण था। यद्यपि पल्लवों के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक उत्कर्ष का केन्द्र कांची थी, किन्तु उनका मूल निवास तोण्डमण्डलम् था। कालान्तर में उनका साम्राज्य उत्तर में  पेन्नार नदी  से दक्षिण में  कावेरी नदी की घाटी तक विस्तृत हो गया।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

इतना निश्चित है कि पल्लव राज्य की स्थापना उस समय में हुई, जबकि  सातवाहन राज्य खण्ड-खण्ड हो गया था। इस वंश द्वारा शासित प्रदेश पहले सातवाहनों की अधीनता में थे। यह माना जा सकता है, कि पल्लव राज्य का संस्थापक पहले सातवाहनों द्वारा नियुक्त प्रान्तीय शासक था, और उसने अपने अधिपति की निर्बलता से लाभ उठाकर अपने को स्वतंत्र कर लिया था। पल्लव वंश की सत्ता का संस्थापक यह पुरुष सम्भवतः  बप्प्देव था। कांचीपुरम में उपलब्ध हुए दो ताम्रपत्रों से इस वंश के प्रारम्भिक इतिहास के विषय में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। इन ताम्रपत्रों पर ‘स्कन्दवर्मा’ नाम के एक राजा के दान पुण्य को उत्कीर्ण किया गया है, जिसे एक लेख में ‘युवमहाराजय’ और दूसरे में ‘धम्ममहाराजाधिराज’ कहा गया है। इससे सूचित होता है, कि एक दानपत्र उसने तब उत्कीर्ण करवाया था, जब कि वह युवराज था और दूसरा उस समय, जब कि वह महाराजाधिराज बन गया था। उसने अग्निष्टोम अथवा 'ज्योतिष्टोम', वाजपेय और  अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया, और  तुंगभद्रा एवं  कृष्णा नदियों द्वारा सिंचित प्रदेश में शासन करते हुए कांची को अपनी राजधानी बनाया।

पल्लव शासक

गुप्त सम्राट  समुद्रगुप्त ने दक्षिणी  भारत में विजय यात्रा करते हुए पल्लव राज  विष्णुगोप को भी आत्मसमर्पण के लिए विवश किया था। समुद्रगुप्त की यह विजय यात्रा चौथी  सदी के मध्य भाग में हुई थी। कठिनाई यह है, कि पल्लवों के प्रारम्भिक इतिहास को जानने के लिए उत्कीर्ण लेखों के अतिरिक्त अन्य कोई साधन हमारे पास नहीं है। इन लेखों में पल्लव वंश के राजाओं के अपने शासन काल की तिथियाँ तो दी हुई हैं, पर इन राजाओं में कौन पहले हुआ और कौन पीछे, यह निर्धारित कर सकना सम्भव नहीं है।

पल्लव कालीन संस्कृति

कांची  के पल्लव नरेश  ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। यह काल ब्राह्मणों के उन्नति का काल रहा। पल्लव राजाओं का शासन काल  नयनारों तथा अलवारों के भक्ति आंदालनों के लिए प्रसिद्ध रहा। नरसिंह वर्मन प्रथम ने शिव  की उपासना में कई मंदिर बनवाए थे। परमेश्वर वर्मन प्रथम शिव का उपासक था। उसकी उपाधि परममाहेश्वर थी। दक्षिण  भारत में  वैष्णव आंदोलन का प्रारम्भ पल्लवों के राज्य से ही हुआ। ब्राह्मण मतानुयायी होते हुए भी पल्लव शासक धर्म सहिष्णु थे। उनके शास काल में  बोद्ध तथा  जैन दोनों मलावलम्बियों को प्रश्रय मिला। कांची धार्मिक क्रिया कलापों का प्रमुख केन्द्र था।

कला तथा स्थापत्य

पल्लव शासकों के काल में  कला तथा स्थापत्य की उन्नति हुई। वस्तुतः उनकी वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पल्लव वस्तुकला ही दक्षिण की द्रविड़ शैली का आधार बनी। दक्षिण भारतीय स्थापत्य के तीन अंग थे-

  1. मंडप
  2. रथ
  3. विशाल मंदिर

शैली

  1. महेन्द्र वर्मन शैली- इस शैली में कठोर पाषाण को काटकर गुहामंदिरों का निर्माण हुआ, जिन्हें मण्डल कहा जाता है।
  2. मामल्ल शैली- इस शैली का विकास  नरसिंहवर्मन प्रथम के काल में हुआ। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक बने- मण्डल तथा एकाश्मक मंदिर, जिन्हें रथ कहा गया। इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम  में ही स्थित हैं।

रथ निर्माण

रथ मंदिर में द्रौपदी रथ सबसे छोटा है। इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता है। रथ मंदिर में धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। इसे द्रविड़ मंदिर शैली का अग्रदूत भी कहा जा सकता है। इसी मंदिर पर नरसिंह वर्मन की मूर्ति अंकित है। इन रथों को ‘सप्त पकोड़ा’ भी कहा जाता है। सप्त पगोडा के अन्तर्गत निम्नलिखित रथ बनें- ‘ धर्मराज रथ’, ‘भीम रथ’, ‘अर्जुन रथ’, ‘सहदेव’ रथ, ‘गणेश’ रथ, ‘वलैयकुट्ई’ रथ और ‘पीदरी’ रथ। राजसिंह शैली में गुहा मंदिरों के स्थान पर पाषाण, ईट आदि की सहायता से इमारती मंदिरों का निर्माण कराया गया। शोर मंदिर इस शैली का प्रथम उदाहरण है।  कांची के कैलाशनाथ मंदिर  का कार्य  नरसिंहवर्मन द्वितीय के समय में प्रारम्भ हुआ तथा  महेन्द्र वर्मन द्वितीय के समय में इसकी रचना पूर्ण हुई। गोपुरम् के प्रारम्भिक निर्माण का स्वरूप सर्वप्रथम इसी मंदिर में देखने को मिलता है। बैकुण्ठ के प्रारम्भिक निर्माण का स्वरूप परमेश्वर वर्मन द्वितीय  के समय में हुआ था यह भगवान  विष्णु का मंदिर है। नन्दि वर्मन शैली के अन्तर्गत छोटे-छोटे मंदिरों को निर्माण हुआ।              (JINESH IAS ACADEMY INPUT)     

 

पल्लवकालीन स्थापत्य कला की विशेषताएँ:

      • रथ मंदिर का निर्माण पल्लवों की महत्त्वपूर्ण देन है। इसके अंतर्गत महाबलीपुरम में पाँच रथ मंदिरों का निर्माण किया गया था। ये रथ मंदिर शिव को समर्पित थे तथा इनका नामकरण पाँच पांडवों के आधार पर किया गया था।
  • पल्लवों की स्थापत्य कला में मंदिर निर्माण को प्रमुख स्थान दिया गया था। इस काल में चट्टानों को काटकर और नक्काशी के द्वारा गुफा और मंदिरों का निर्माण किया गया था।
  • रथ मंदिरों में सहदेव, धर्मराज और भीम रथ बहु-मंजिले हैं और इनके शिखर पिरामिड के समान है। द्रोपदी रथ लकड़ी के स्तंभों के सहारे झोपड़ीनुमा पत्थर की अनुकृति है। उल्लेखनीय है कि द्रोपदी रथ बाँस और छप्पर के आदिप्रारूप की भी अनुकृति प्रस्तुत करता है।
  • एकाश्मक मंदिर संरचना भी पल्लवकालीन स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। महाबलीपुरम का गणेश रथ एकाश्मक मंदिरों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। तीन मंजिला गणेश रथ में बेहतरीन नक्काशी की झलक मिलती है।
  • राजसिंह द्वारा निर्मित कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर का पल्लव वंश के स्थापत्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस विशाल मंदिर की भव्यता काफी मनोरम है।

पल्लवों की अन्य सांस्कृतिक उपलब्धियाँ:

      • पल्लवों के काल में स्थापत्य के बाद साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रगति देखने को मिलती है। पल्लव शासकों द्वारा संस्कृत भाषा को संरक्षण प्रदान किया गया था।
  • संकृत भाषा के प्रसिद्ध कवि व ‘किरातार्जुनीयम’ के रचयिता भारवि सिंहविष्णु के दरबार में रहते थे। इसके अतिरिक्त पल्लवकालीन रचनाकारों में दण्डिन प्रमुख थे, इन्होंने ‘दश्मुखचरित’ और ‘काव्यादर्श’ जैसी पुस्तकों की रचना की। पल्लव वंश के शासक महेन्द्रवर्मन स्वयं साहित्य की महान हस्तियों में से एक थे।
  • पल्लवों के शासन काल को धार्मिक पुनर्जीवन के काल के रूप में भी याद किया जाता है। इन्होंने दक्षिण भारत में आर्यीकरण को बढ़ावा देकर ब्राह्मण धर्म का प्रसार किया। इसके कारण ही कांची हिंदुओं के सात पवित्र शहरों के रूप में गिना जाने लगा।
  • यद्यपि पल्लव विष्णु एवं शिव के उपासक थे, किंतु उन्होंने अन्य पंथों के प्रति सहिष्णुता बनाए रखी।
  • मूर्तिकला के सन्दर्भ में भी पल्लव काल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। महाबलीपुरम के सात विशालकाय पैगोडा के साथ महिषासुरमर्दिनी, गजलक्ष्मी, अर्जुन का तप आदि प्रतिमाओं को पल्लवों का संरक्षण प्राप्त हुआ।
  • यद्यपि पल्लवों की स्थापत्य शैली धार्मिक भावनाओं से प्रेरित प्रतीत होती है, फिर भी उनकी सांस्कृतिक उपलब्धि भारतीय इतिहास को गौरवान्वित करने के साथ अमूल्य धरोहर का एहसास देती है। पल्लव कला की विशेषताएँ भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया तक भी पहुँचीं।

पल्लव काल मंदिर निर्माण का एक महान युग था। पल्लवों ने बौद्ध चैत्य विहारों से विरासत में प्राप्त कला का विकास किया और नवीन शैली को जन्म दिया जिसका पूर्ण विकसित रूप पांड्य काल में देखने को मिला।

 

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