गोतबाया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) की जीत

गोतबाया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) की जीत

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में श्रीलंका के हालिया चुनावों और भारत पर उसके प्रभाव की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम जिनेश आई. ए .एस. के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

होटल और चर्च पर हुए ईस्टर हमलों से उबरने के लिये संघर्ष कर रहे श्रीलंका ने अपने हालिया चुनावों में सातवें राष्ट्रपति के रूप में देश के पूर्व रक्षा सचिव गोतबाया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) को निर्वाचित किया है। कई विश्लेषक मान रहे हैं कि श्रीलंका के हालिया चुनावों में ईस्टर हमलों ने काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है और इसी कारण जानकार, गोतबाया राजपक्षे की जीत को ‘कट्टरपंथी और बहुसंख्यक’ नेतृत्व की जीत बता रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि श्रीलंका के मतदाताओं ने एक ऐसी सरकार को प्राथमिकता दी है जो देश की आर्थिक समृद्धि के साथ आंतरिक सुरक्षा भी सुनिश्चित कर सके। गौरतलब है कि गोतबाया राजपक्षे श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे (वर्ष 2005 से वर्ष 2015 तक) के भाई हैं जिन्हें चीन से उनके बेहतर संबंधों के लिये जाना जाता है। ऐसे में गोतबाया राजपक्षे की जीत मुख्यतः भारत के दृष्टिकोण से चर्चा का महत्त्वपूर्ण विषय बन गई है और यह समझना आवश्यक हो गया है कि श्रीलंका की इस राजनीतिक स्थिति के भारत के लिये क्या मायने हैं।

ईस्टर हमले और लिट्टे हिंसा का प्रभाव

जानकार मानते हैं कि गोतबाया राजपक्षे की जीत की कहानी अप्रैल 2019 में ईस्टर के दिन से ही शुरू हो गई थी, जब कुछ आत्मघाती हमलावरों ने इस्लामिक स्टेट (IS) के प्रति वफादारी का दावा करते हुए श्रीलंका की चर्चों और होटलों में सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी थी। उस भयावह दिन ने श्रीलंका में लिट्टे द्वारा आतंकवादी हिंसा के वर्षों की स्मृति को फिर से जागृत कर दिया। श्रीलंका का यह सामाजिक और राजनीतिक विद्रोह और उसके विरुद्ध सैन्य विफलता वर्ष 2007 तक अनवरत जारी रही। यही वह समय था जब तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने लिट्टे के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई की कमान अपने भाई गोतबाया राजपक्षे को सौंप दी और उन्हें देश का रक्षा सचिव नियुक्त कर दिया गया। कमान संभालने के दो वर्षों के अंदर ही गोतबाया राजपक्षे के नेतृत्व में श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे को कुचल दिया। उल्लेखनीय है कि गोतबाया को लिट्टे के विरुद्ध संघर्ष के नायक के रूप में देखा गया। दस वर्षों बाद जब श्रीलंका को एक ओर राष्ट्रीय सुरक्षा संकट का सामना करना पड़ा तब गोतबाया राजपक्षे एक बार फिर नायक के रूप में देखे जाने लगे। इस छवि निर्माण में इस चर्चा ने भी एक महत्त्वपूर्ण किरदार अदा किया कि वर्ष 2015 में राजपक्षे शासन को समाप्त करने वाली सरकार इन बम विस्फोटों को रोकने में असफल रही है।

श्रीलंकाई गृहयुद्ध श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहला और अल्पसंख्यक तमिलो के बीच 23 जुलाई, 1983 से आरंभ हुआ गृहयुद्ध है। मुख्यतः यह श्रीलंकाई सरकार और अलगाववादी गुट  लिट्टे के बीच लड़ा जाने वाला युद्ध है। 30 महीनों के सैन्य अभियान के बाद मई 2009 में श्रीलंकाई सरकार ने लिट्टे को परास्त कर दिया।

लगभग 24  वर्षों तक चले इस गृहयुद्ध में दोनों ओर से बड़ी संख्या में लोग मारे गए और यह युद्ध द्वीपीय राष्ट्र की अर्थव्यस्था और पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हुआ। लिट्टे द्वारा अपनाई गई युद्ध-नीतियों के चलते 32देशों ने इसे आतंकवादी गुटो की श्रेणी में रखा जिनमें भारत, आँस्ट्रेलिया,कनाडा,यूरोपीय संघ  के बहुत से सदस्य राष्ट्र और अन्य कई देश हैं। एक-चौथाई सदी तक चले इस जातीय संघर्ष में सरकारी आँकड़ों के अनुसार ही लगभग 80000 लोग मारे गए हैं।

 

भारत के लिये राजनीतिक परिवर्तन के मायने

पड़ोसी देश होने के नाते श्रीलंका में आया यह बड़ा राजनीतिक परिवर्तन भारत के लिये सामरिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। विदित है कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे के भाई और श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे वर्ष 2015 में राष्ट्रपति चुनाव हार गए थे, हार के बार राजपक्षे शासन के कई समर्थकों ने उनकी अप्रत्याशित और आश्चर्यजनक हार के लिये भारत को ज़िम्मेदार ठहराया था। गौरतलब है कि भारत और श्रीलंका के संबंधों में मतभेद की शुरुआत श्रीलंका के गृहयुद्ध के समय से ही हो गई थी। जहाँ एक ओर श्रीलंकाई तमिलों को लगता है कि भारत ने उन्हें धोखा दिया है, वहीं सिंहली बौद्धों को भारत से खतरा महसूस होता है। इसके अलावा राजपक्षे शासन का चीन की ओर आकर्षण भी भारत के लिये चिंता का विषय है। अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी गोतबाया राजपक्षे ने यह बात खुलकर कही थी कि यदि वे सत्ता में आते हैं तो चीन के साथ रिश्तों को मज़बूत करने पर अधिक ज़ोर दिया जाएगा। यह भी सत्य है कि श्रीलंका में चीनी प्रभाव का उदय महिंदा राजपक्षे की अध्यक्षता के समानांतर ही हुआ था। राजपक्षे के कार्यकाल में ही श्रीलंका ने चीन के साथ अरबों डॉलर के आधारिक संरचना संबंधी समझौतों पर हस्ताक्षर किये थे। आँकड़ों के अनुसार, 2008 से 2012 के बीच श्रीलंका का 60 प्रतिशत विदेशी उधार चीन से आया था। उपरोक्त तथ्य श्रीलंका में चीन के अनवरत बढ़ते प्रभाव को दर्शाते हैं, जो कि भारत के दृष्टिकोण से बिलकुल भी अनुकूल नहीं है। दक्षिण एशिया क्षेत्र में चीन का बढ़ रहा प्रभाव भारत के लिये चिंता का सबब बन सकता है। गौरतलब है कि नेपाल के बाद श्रीलंका दूसरा ऐसा भारतीय पड़ोसी देश होगा जहाँ चीन समर्थित या चीन की ओर प्रेरित सरकार है। वर्ष 2009 में भी चीन ने श्रीलंका को लिट्टे के विरुद्ध लड़ाई के लिये हथियारों की आपूर्ति की थी जबकि उस समय भारत समीप के एक पड़ोसी देश के किरदार से आगे नहीं पहुँच पाया था। हालाँकि चीन से इस घनिष्ठता का यह मतलब नहीं था कि राजपक्षे भारत के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं चाहते थे। परंतु उनकी नीतियों में लगातार चीन को एक महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता दिखाई दे रहा था। इसके पश्चात् वर्ष 2015 में सिरिसेना सत्ता में आए और उनके कार्यकाल में श्रीलंका पर भारत का प्रभाव बढ़ने लगा एवं भारत, श्रीलंका के साथ नई विकास परियोजनाओं में शामिल हुआ। राजपक्षे परिवार अब एक पर दोबारा सत्ता में आ गया है और ऐसी स्थिति में भारत यही आशा कर सकता है कि गोतबाया राजपक्षे की जीत भारत और श्रीलंका के संबंधों को प्रभावित नहीं करेगी। गौरतलब है कि हाल ही में भारत और श्रीलंका के मध्य कोलंबो बंदरगाह पर ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (East Container Terminal) बनाने को लेकर एक समझौता हुआ था, इसके कारण भारत आने वाला बहुत सा सामान कोलंबो बंदरगाह के रास्ते भारत पहुँचता है ऐसे में भारत श्रीलंकाई सरकार से सहयोग की अपेक्षा करेगा, परंतु राजपक्षे शासन भारत के लिये चिंताओं को बढ़ा सकता है। कई विश्लेषक मानते हैं कि श्रीलंका का यह राजनीतिक परिवर्तन स्पष्ट रूप से चीन के हक में है, जबकि कई अन्य विश्लेषकों का मानना है कि इन चुनावों से श्रीलंका के भारत और चीन के साथ रिश्तों पर कोई ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि श्रीलंकाई सरकार यह नहीं चाहेगी कि उसे विश्व की दो उभरती शक्तियों के मध्य चुनाव करना पड़े इसीलिये वे श्रीलंका को दोनों देशों के बीच संतुलन बनाए रखना होगा।

चीन के कर्जे में दबा है श्रीलंका

उल्लेखनीय है कि चीन श्रीलंका में लगातार निवेश को बढ़ाकर उसे कर्ज के बोझ में दबा रहा है। महिंदा राजपक्षे ने अपने कार्यकाल में चीन से अरबों डॉलर का उधार लिया और उसके युद्धपोतों के लिये श्रीलंका का दरवाज़ा हमेशा के लिये खोल दिया। कोलंबो बंदरगाह के कार्यभार को कम करने के लिये चीन ने तकरीबन एक अरब डॉलर की लागत से श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह का विकास किया था। गौरतलब है कि यह निवेश श्रीलंका को कर्ज के रूप में दिया गया था, परंतु इस बंदरगाह से श्रीलंका को कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाया जिससे वह चीन के उधार के बोझ में दब गया। इसके बाद चीन ने श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को अपने नियंत्रण में ले लिया। उम्मीद की जा रही है कि चीन के वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव में इस बंदरगाह की अहम भूमिका होगी। हंबनटोटा बंदरगाह को न्यू सिल्क रोड के नाम से भी जाना जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस परियोजना के तहत चीन और यूरोप को सड़कों और बंदरगाहों से जोड़ने की योजना बनाई गई है। कई जानकार अक्सर श्रीलंका को एक ऐसे देश के रूप में संबोधित करते हैं जो चीन द्वारा वित्तपोषित सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं के परिणामस्वरूप कर्ज के जाल में फंस गया है। आँकड़ों के मुताबिक, वर्तमान में श्रीलंका का कुल विदेशी उधार लगभग 55 बिलियन डॉलर का है, जिसमें से तकरीबन 10 प्रतिशत हिस्सा चीन का भी है।

निष्कर्ष 

भारत और श्रीलंका के मध्य एक साझा संस्कृति है जो दोनों देशों को एक साथ जोड़ने का कार्य करती है। दक्षिण एशिया में महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों के साथ एक प्रमुख एशियाई राष्ट्र होने नाते के भारत पर अपने निकटतम पड़ोस में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने की विशेष ज़िम्मेदारी है। जानकारों का मानना है कि राजपक्षे परिवार चीन का समर्थक ज़रूर है, परंतु वे भारत विरोधी नहीं है। पड़ोसी होने के नाते भारत और श्रीलंका दोनों को विकास के लिये एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होगी। अतः आवश्यक है कि भारत और श्रीलंका एक मंच पर आकर विभिन्न मुद्दों पर विचार कर अपने द्विपक्षीय संबंधों को और मज़बूत करने का प्रयास करें।

प्रश्न : श्रीलंका में बदलते राजनीतिक समीकरण के परिप्रेक्ष्य में भारत पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा कीजिये।

 

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