प्रश्न:तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में राजनीतिक अर्थशास्त्रिय उपागम के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का समालोचनात्मक परिक्षण कीजिये?

प्रश्न:तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में राजनीतिक अर्थशास्त्रिय उपागम के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का समालोचनात्मक परिक्षण कीजिये?

उत्तर:

रुपरेखा:

1-      तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति

   (अ)राजनीतिक संस्कृति का अध्ययन

   (ब)विकासशील समाजो का अध्ययन

   (स)प्रतियोगी राज्यों के मध्य शक्ति संतुलन

   (द) अन्तःअनुशासनात्मक दृष्टिकोण

2-समाजवाद का नारा “शांति,समाजवाद और सम्रद्धि”

3-पूंजीवाद कभी “समानता” नहीं दे सकता

 

‘अरस्तु’ को ही तुलनात्मक राजनीति का जनक माना जाता है। 2500 वर्ष पूर्व अरस्तु पहले तुलनावादी अध्ययनकर्ता माने जाते हैं,जिन्होंने ग्रीक के नगर राज्यों का विश्लेषण किया। उन्होंने 158 संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया, उन्होंने ना केवल नगर राज्यों के औपचारिक संवैधानिक प्रावधानों का बल्कि आधारभूत सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधारो तथा समय के साथ में हुए परिवर्तनों का भी अध्ययन किया। इन सब की तुलना करने का एक प्रमुख उद्देश्य ‘बेहतर शासन व्यवस्था’ की खोज करना था।ग्रीक प्लेटो तथा रोमन सिसरो ने भी तुलनात्मक उपागम का प्रयोग न केवल राजनीतिक व्यवस्था के वर्गीकरण में किया बल्कि एक आदर्श प्रकार के राजनीतिक व्यवस्था का सुझाव देने में भी किया।

अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू)

1-वे एक यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। 

2-उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।

3-अरस्तु को खोज करना बड़ा अच्छा लगता था खासकर ऐसे विषयों पर जो मानव स्वाभाव से जुड़े हों जैसे कि "आदमी को जब भी समस्या आती है वो किस तरह से इनका सामना करता है?” और "आदमी का दिमाग किस तरह से काम करता है।" समाज को लोगों से जोड़े रखने के लिए काम करने वाले प्रशासन में क्या ऐसा होना चाहिए जो सर्वदा उचित तरीके से काम करें। ऐसे प्रश्नों के उतर पाने के लिए अरस्तु अपने आस पास के माहौल पर प्रायोगिक रुख रखते हुए बड़े इत्मिनान के साथ काम करते रहते थे

 

तुलनात्मक राजनीती की प्रकृति विवाद का विषय रही है|कुछ राजनितिक विद्वानों के अनुशार तुलनात्मक राजनीती का स्वरुप लम्बात्मक है तहत कुछ के अनुसार इसका स्वरुप क्षेतिज है|

                                                                 तुलनात्मक राजनीती की प्रकृति

                             लम्बात्मक स्वरुप

                                    क्षेतिज स्वरुप

1-इसके लम्बत्मक स्वरुप के समर्थको के अनुसार तुलनात्मक राजनीति एक ही देश में स्थित विभिन्न स्तरों पर स्थापित सरकार में परस्पर तुलना कि जाती है|

2- राज्य में कई स्तरों पर सरकारें होती हैं,जिन्हें मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित करते हैं- सार्वजनिक सरकार और स्थानीय सरकार|

3-जिन राज्यों में एकात्मक शासन प्रणाली अपने जाती है वह,एक राष्ट्रिय व कई स्थानीय सरकार होती हैं|

4-जिन राज्य में संघीय सरकार अपने जाती है,वह केन्द्रीय व प्रांतीय सरकार होती है|

5-इन सरकारों मे परस्पर तुलना को ही लम्बात्मक तुलना कहते हैं|

1-इस धारणा के अनुसार तुलनात्मक राजनीती में यह ही देश में मौजूद राष्ट्रीय सरकार की विभिन्न कालों कि तुलना कि जाती है|

2-तुलनात्मक राजनीती विभिन्न समाजों में कार्यरत राजनतिक व्यवस्थाओं कि तुलना व व् अध्ययन करती है|

3-ऐसा करते हुए यह तीन प्रमुख तत्वों को ध्यान में रखती है-

·        राजनीतिक क्रिया (Political Activity)

·        राजनीतिक प्रक्रिया (Political Process)

·        राजनीतिक शक्ति (Political Power)

 

 

 मार्क्सवाद बीसवीं सदी में दुनिया के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली विचारधारा तो है ही, लेकिन सोवियत संघ के विघटन, चीन के धीरे-धीरे एक पूंजीवादी तानाशाही में तब्दील होते जाने, दुनिया भर के कई देशों, जैसे रोमानिया में चाउसेस्कू जैसे तानाशाहों को जन्म देने और एक शासन व्यवस्था के रूप में विरोधियों द्वारा पूरे जोर-शोर से खारिज किए जाने के बावजूद आज भी न केवल बौद्धिक अपितु राजनैतिक दुनिया में भी बहस का विषय बनी हुई है।

 एक तरफ इसे एक मृत विचारधारा घोषित करने में पूंजीवादी प्रचार तंत्र अपना पूरा जोर लगा देता है तो दूसरी तरफ अपनी हालिया हार के बावजूद दुनिया भर में वाम बुद्धिजीवी तथा वामपंथी राजनैतिक दल अपने-अपने तरीके से वर्तमान संदर्भों में इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करने के साथ-साथ नई परिस्थितियों के अनुसार एक वामपंथी राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था को परिभाषित करने में लगे हैं।

 कम्युनिज्म के स्वप्न का सबसे बड़ा पक्ष है बराबरी पर आधारित सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना। आज अपने प्रचंड प्रभाव के बावजूद पूंजीवाद जो एक चीज़ कभी नहीं दे सकता वह है समानता। इसके विकास के मूल में ही गैर बराबरी की अवधारणा अन्तर्निहित है। लाभ की लगातार वृद्धि के उद्देश्य से संचालित इसका कार्य व्यापार मुनाफे की एक ऐसी हवस को जन्म देता है जो एक तरफ नए-नए और उन्नत उत्पादों की भीड़ लगाता जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें खरीदने की ताकत को लगातार कुछ हाथों में सीमित कर बाकी बहुसंख्या को उत्तरोत्तर वंचितों के खांचे में डालता चला जाता है। दुनिया के पैमाने पर अमीर-गरीब देश बनते जाते हैं, देशों के पैमाने पर अमीर-गरीब लोग। सत्ता इन्हीं प्रभावशाली वर्गों के व्यापारिक और सामाजिक हितों की रक्षा का काम करती है। स्वार्थ ही सबसे बड़ा सिद्धांत होगा और अन्याय ताकतवर का हथियार होगा तो कमजोर विद्रोह पर उतरेंगे ही।

 यानि समाजवाद का एक नारा हो सकता है – शान्ति, समाजवाद, समृद्धि। आज किसी भी समाजवादी मॉडल को इन तीनों ही उद्देश्यों को एक साथ साधना होगा। साथ ही इसे वर्तमान पूंजीवाद से अधिक लोकतांत्रिक भी होना ही होगा। तभी यह समाज के व्यापक हिस्से को अपने साथ ले पाएगा।  

 

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