महामहिम राष्ट्रपति जी
हमें राष्ट्रपति की क्या आवश्यकता है?
संसदीय व्यवस्था में मंत्रिपरिषद् विधायिका में बहुमत के समर्थन पर निर्भर होती है. इसका अर्थ यह है कि मंत्रिपरिषद् को कभी भी हटाया जा सकता है और तब उसकी जगह एक नई मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति करनी पड़ेगी. ऐसी स्थिति में एक ऐसे राष्ट्र प्रमुख की जरुरत पड़ती है जिसका कार्यकाल स्थायी हो, जिसके पास प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की शक्ति हो और जो सांकेतिक रूप से पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सके. सामान्य परिस्थतियों में राष्ट्रपति की यही भूमिका है लेकिन जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तब राष्ट्रपति पर निर्णय लेने और देश की सरकार को चलाने के लिए प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है.
‘राष्ट्रपति के रूप में श्री प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल :
1-प्रणब दा ज्यादातर राष्ट्रपतियों की तरह रबर स्टैंप राष्ट्रपति ही साबित हुए. चाहे अरुणाचल का मामला हो या उत्तराखंड का, उन्होंने स्वविवेक का प्रयोग न्यूनतम किया है.
2-राज्यपालों की अदला-बदली में भी वह निष्क्रिय भूमिका में दिखे. ताश के पत्तों की तरह राज्यपालों को बदलने वाली राजग सरकार से राष्ट्रपति सवाल भी नहीं पूछते दिखे.
3-प्रणब मुखर्जी दया याचिका खारिज करने के मामले में सबसे सख्त नज़र आते हैं. इस मामले में उनकी छवि एक कठोर राष्ट्रपति के रूप में है. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने 97 फीसदी दया याचिकाएं ख़ारिज की है.
4-एक बार मना करने के बाद भी विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति को निलंबित करना
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पूर्व के राजनीतिक अनुभव:
1-1969 से पांच बार संसद के उच्च सदन (राज्य सभा) के लिए और 2004 से दो बार संसद के निम्न सदन (लोक सभा) के लिए चुना गया.इस दौरान उन्होंने राजस्व एवं बैंकिंग राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), वाणिज्य एवं इस्पात और खान मंत्री, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री समेत विभिन्न मंत्रालयों का पदभार संभाला.
2- वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे.
69वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर दिए गए अपने संदेश में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा, ‘अच्छी से अच्छी विरासत के संरक्षण के लिए लगातार देखभाल जरूरी होती है. लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं. संसद परिचर्चा के बजाय टकराव के अखाड़े में बदल चुकी है.ऐसे में यदि लोकतंत्र की संस्थाएं दबाव में हैं तो समय आ गया है कि जनता तथा उसके दल गंभीर चिंतन करें. सुधारात्मक उपाय अंदर से आने चाहिए.’