टाइम बम फटने वाला है

भारतीय कृषि रोजाना की सफलता-असफलता के विषय में चाहे जो तर्क दिए जाएँ हैं परन्तु इतना निर्विवाद सत्य है कि भारतीय कृषि आयोजना और कृषि नीति अभी तक विफल की रहीं हैं। पिछले 15 वर्षो के दौरान कृषि में लगे परिवार बर्बाद हो गए, अनगिनत महिलाएं विधवा हो गईं, गांव के गांव निराशा में डूब हो गए। इतना होने पर भी राजनीतिक सत्ता कारगर कदम उठाने को तैयार नहीं है।भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था मात्र नहीं है, वरन यह प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण खाद्य पदार्थों का उत्पादन करने वाली विश्व की तीसरी सबसे वृहद अर्थव्यवस्था भी है|  बावजूद इसके पिछले 15 सालों से देश में कृषि वृद्धि दर निरंतर घटती जा रही है|

गौरतलब है कि भारत में कृषि वृद्धि दर अपने वार्षिक लक्ष्य 4 फीसदी के स्तर से भी नीचे गिरती जा रही है, जोकि चिंता का विषय है| जैसा कि पूर्व विदित है, देश की इस लम्बी विकास यात्रा में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है| उल्लेखनीय है कि भारत की जीडीपी में कृषि एवं इससे संबद्ध क्षेत्रों का योगदान 14-15 प्रतिशत के आस-पास रहा हैं, लेकिन इस क्षेत्र में देश की तकरीबन 50 प्रतिशत आबादी कार्यरत है|

प्रमुख बिंदु 

इतना ही नहीं, कुछ क्षेत्रों में चक्रीय फसल प्रणाली(धान-गेहूँ-धान) की निरंतरता के कारण मृदा की उर्वरता में भी कमी दर्ज की गई है |इसके साथ-साथ भू-जल स्तर में भी गिरावट देखी जाती है| दूसरे शब्दों में कहें तो ये सभी कारक एवं स्थितियाँ पर्यावरणीय आपदा के आगमन  के सूचक माने जाते  हैं|

कृषि और पोषण

 

उल्लेखनीय है कि भारत पोषण में असुरक्षा के जोखिम से जूझ रहा है|इतना ही नहीं भोजन में पोषण के  स्तर के विषय में विभिन्न राज्यों की स्थितियां भी भिन्न-भिन्न पाई गई हैं|ध्यान रहे कि भारत में अल्पपोषण के दीर्घकालिक प्रभाव बहुत ही गम्भीर स्तर के हैं|जिसके कारण अधिकतर गरीब वर्ग  के लोग ही प्रभावित होते हैं|

कुपोषण   

भारत में पिछले 40 सालों से खाद्यान्न बांटने वाली योजनायें चल रही हैं परन्तु कुपोषण-भुखमरी नहीं मिटी; क्योंकि केवल गेहूं-चावल से भुखमरी नहीं मिट सकती हैं। अतः जरूरी है कि खाद्य सुरक्षा कानून को पोषण की सुरक्षा के कानून के साथ जोड़कर देखा जाये। कुपोषण से व्यक्ति को होता है अपनी आजीविका कमाने की क्षमता में 10 प्रतिशत का नुकसान क्योंकि भुखमरी व्यक्ति की क्षमताओं को विकसित नही होने देती है। जीडीपी को 2-3 फीसदी का नुकसान होता है। शिशुओं की ऊंचाई में 4.6 सेमी की कमी होती है। बच्चों को स्कूल शुरू करने में 7 माह की देरी होती है और स्कूलों में मिलने वाले ग्रेड में 0.7 का नुकसान होता है। विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी मांसपेशियों में कई तरह की विकलांगता आती है,  साथ ही चीजों को सीखने,  समझने की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है, यानी डिस्लेक्सिया और डिस्कैल्कूलिया आदि। कैल्षियम की कमी से हड्डियां कमजोर होती हैं वहीं विटामिन-ए की कमी नजर कमजोर कर देती है, इसी तरह अन्य पोषक तत्वों की कमी से कई तरह की बीमारियां या कमियां आती हैं।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारत में विभिन्न प्रकार की नीतियों का संचालन विभिन्न मंत्रालयों द्वारा किया जाता है, तथापि इन सभी कार्यक्रमों को लागू करने की गति बहुत ही मंद है तथा पूरे देश में भी यह गति एकसमान नहीं है| यही कारण है कि ये नीतियाँ अपने निर्माण के समय तय किये गए लक्ष्यों को साधने में अभी तक सफल नही हो पाई हैं|

क्या हैं सरकारी बहाने?

जब हम यह बात करते हैं कि देश  की तीन चैथाई आबादी को खाद्य सुरक्षा का कानूनी हक दिया जाये तो सरकार कहती है कि हमारे पास इतना धन नहीं है कि इतना व्यापक कानून बनाया जा सके। और फिर वे यह भी कहते हैं कि देश में इतना उत्पादन नहीं है कि सरकार इतनी बड़ी मात्रा में अनाज की खरीदी करे। इससे खुले बाजार में भाव गिर जायेंगे, अफरा-तफरी मच जायेगी। पर हम कहते हैं कि ये सफेद झूठ है। सरकार के पास पैसा भी है और देश में इतना उत्पादन भी वास्तव में..... खाद्य असुरक्षा के मूल कारणों से निपटने की बात नहीं करता है। इस विषय पर चल रही बहस में खाद्य सुरक्षा कानून को व्यापक और लोकव्यापी बनाने से इंकार करते हुये बार-बार दो तर्क दिये जा रहे हैं -

सरकार के पास इतने संसाधन नहीं है कि वह इस कानून के लिये 1 लाख करोड़ रूपये सब्सिडी दे सके। हम आपको यह बताना चाहते हैं कि भारत सरकार ने उद्योगों और पूंजीपतियों को वर्ष 2010 में 5.20 लाख करोड़ रूपये की कर रियायत दी है। क्या इसका एक चैथाई हिस्सा भी भूख और कुपोषण से मुक्ति के लिये खर्च नहीं किया जा सकता है?  साथ ही आप देश में सरकार की सरपरस्ती में हुये 5 लाख करोड़ रूपये के घोटालों पर क्यों मौन हैं?

दूसरे स्तर पर रंगराजन् समिति ने कहा कि इतना उत्पादन देश में नहीं है कि सरकार सभी के लिए कानून बना सके। हम आपको बताना चाहते हैं कि देश में होने वाले कुल उत्पादन 230 लाख टन में से सरकार महज 20 से 25 प्रतिशत अनाज की ही खरीदी करती है इसमें से भी केवल 18 प्रतिशत ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली से वितरित होता है। रंगराजन समिति चिंतित है कि अनाज का कारोबार करने वाली कम्पनियों का क्या होगा पर वह भूख और कुपोषण के शिकार लोगों या आत्महत्या कर रहे किसानों के बारे में कतई चिंतित नहीं है। क्यों नहीं सरकार अपनी खरीदी को 50 से 60 प्रतिशत के स्तर तक लेकर नहीं जाना चाहती; यह आपको पूछना चाहिये?

 

 धारणीय खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये कुछ व्यावहारिक अनुशंसाएँ

1-सरकारी नीतियों को, न केवल अच्छी गुणवत्ता वाले  अनाजों की पूर्ति पर बल्कि पोषण युक्त अनाजों (दलहनों, तिलहनों, दूध, मुर्गी तथा मछली) पर भी केन्द्रित किया जाना चाहिये |

2-सार्वजानिक वितरण प्रणाली तथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में दालों तथा खाद्य तेल को शामिल किया जाना चाहिये|

3-खाद्य सुदृढ़ीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये|

4-मध्याहन भोजन कार्यक्रम तथा समेकित बाल विकास योजना में प्रोटीन तथा पोषण युक्त पदार्थों की मात्रा को बढ़ाया जाना चाहिये|साथ ही, इसमें सब्सिडी को भी जोड़ा जान चाहिये |

निष्कर्ष 

जैसा  कि स्पष्ट है, वैश्विक मानकों की तुलना में भारत में इन अनाजों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता बहुत ही कम है| अत:इस जटिल समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार को सर्वप्रथम कृषि, पोषण तथा स्वास्थ्य के मध्य के नज़दीकी संबंध को समझने की आवश्यकता है| चूँकि, कृषि भोजन का प्रमुख स्रोत है, अतः यह पोषण का भी प्रमुख स्रोत है|  इतना ही नहीं, यह उस आय का भी स्रोत है जिससे देश को पोषणीय भोजन प्राप्त होता है| हालाँकि, इस दिशा में सरकारी पहलों के तहत किये गए प्रयासों के परिणामस्वरूप आने वाले समय में नीति समर्थन, शोध समर्थन तथा निवेश समर्थन के माध्यम से भारत में भोजन तथा पोषण सुरक्षा को उन्नत बनाने में सहयता प्राप्त होगी| 

 

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