कानूनों की न्यायिक समीक्षा की नईं बहस



सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध
(खंड-1 : भारतीय संविधान, आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी सरंचना)

सन्दर्भ
अध्यादेश राज को हतोत्साहित करने वाले एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने न्यायपालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति में विस्तार करते हुए स्पष्ट किया कि न्यायपालिका इस बात की जाँच कर सकती है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा अध्यादेश प्रख्यापित करने के पीछे कहीं कोई अप्रत्यक्ष मकसद तो नहीं है? गौरतलब है कि शीर्ष अदालत का यह फैसला ऐसे समय में आया है जब तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा हाल के कुछ वर्षों में अध्यादेश एक श्रृंखला में जारी किये गए हैं|

निर्णय से संबंधित महत्त्वपूर्ण बिन्दु 

  • संविधान पीठ ने यह फैसला बिहार में अध्यादेश के ज़रिये शिक्षकों की भर्ती से जुड़े मामले में सुनाया है| विदित हो कि बिहार की पूर्व सरकार द्वारा सात बार अध्यादेश जारी करके राज्य में शिक्षकों की नियुक्ति की गई थी, लेकिन बाद की सरकार ने उस अध्यादेश को जारी करने से इन्कार कर दिया| इससे अध्यादेश के आधार पर बहाल किये गए शिक्षकों की नियुक्ति खत्म हो गई| 
  • गौरतलब है कि इस निर्णय में, केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा एक ही अध्यादेश को बार-बार जारी करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर सर्वोच्च न्यायालय ने गहरी नाराज़गी जताते हुए कहा कि किसी अध्यादेश को दोबारा जारी करना संविधान से धोखा है|
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अध्यादेश लागू करने को लेकर संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति और अनुच्छेद 213 के तहत राज्यपाल की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है|
  • पीठ के अनुसार, अध्यादेश में भी वही शक्तियाँ निहित हैं, जो विधायिका द्वारा पारित किसी कानून में होती हैं, साथ ही किसी भी अध्यादेश को कानून बनाने के लिये विधेयक के रूप में संसद या विधानसभा में पेश न किया जाना संविधान का घोर उल्लंघन है|
  • इसी क्रम में संविधान पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि अध्यादेश समाप्त होने या दोबारा जारी होने पर इसके लाभार्थियों को कोई कानूनी अधिकार नहीं दिया जा सकता है|

क्या होता है अध्यादेश?

  • दरअसल, जब संसद या विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा होता है तो केंद्र और राज्य सरकार तात्कालिक ज़रूरतों के आधार पर राष्ट्रपति या राज्यपाल की अनुमति से अध्यादेश जारी करती है|
  • अध्यादेश में संसद/विधानसभा द्वारा पारित कानून जैसी शक्तियाँ होती हैं, लेकिन इस अध्यादेश को छह महीने के भीतर संसद या राज्य विधानसभा के अगले सत्र में सदन में पेश करना अनिवार्य होता है।
  • यदि सदन उस विधेयक को पारित कर दे तो यह कानून बन जाता है, जबकि निर्धारित समय में सदन से पारित नहीं होने की स्थिति में अध्यादेश स्वतः समाप्त हो जाता है। लेकिन कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि सरकारें एक ही अध्यादेश को बार-बार जारी करती रही हैं।

क्या होती है न्यायिक समीक्षा?

  • न्यायिक समीक्षा की शक्ति न्यायपालिका को प्राप्त वह शक्ति है जिसके तहत वह संविधान तथा विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों की जाँच अथवा पुनर्व्याख्या करता है और वह ऐसे किसी भी विधि को लागू करने से इन्कार कर सकता है, अथवा उसके उन प्रावधानों को अविधिमान्य घोषित कर सकता है, जो संवैधानिक प्रावधानों से असंगत हों।
  • न्यायिक समीक्षा की शक्ति उच्च न्यायालयों के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 में समाहित है, वहीं उच्चतम न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्तियाँ अनुच्छेद 32 और 136 में निर्दिष्ट हैं|
  • विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों के व्यापक अधिकार क्षेत्र के साथ भारत की एक स्वतंत्र न्यायपालिका है।जिसे न्यायिक समीक्षा को सिद्धांत के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसके तहत न्यायपालिका द्वारा विधायी और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा की जाती है। इसे आम तौर पर स्वतंत्र न्यायपालिका की बुनियादी संरचना के रूप में जाना जाता है (इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामला)

न्यायिक समीक्षा के लाभ
1 इसके माध्यम से शक्ति का पृथ्क्करण राज्य के तीनों अंगों तथा केन्द्र-राज्य के मध्य बना रहता है
2 संविधान की सर्वोच्चता तथा विधि का शासन बना रहता है
3 स्वंय सर्वोच्च न्यायालय ने  केशवानंद भारती वाद में न्यायिक समीक्षा को संविधान के आधारभूत ढाँचे का अंग घोषित किया है

क्या हैं न्यायिक सक्रियता (Judicial activism)?

 इसे न्यायिक निर्णय लेने के एक ऐसे दर्शन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जहां न्यायाधीश संविधानवाद की बजाय सार्वजनिक नीति के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट करते हैं। भारत में सक्रियता से कुछ मामलों इस प्रकार हैं:

 

  • गोलकनाथ मामले में जहां सुप्रीम कोर्ट ने यह घोषणा की थी कि भाग 3 में निहित मौलिक अधिकार अपरिवर्तनीय हैं और उन्हें सुधारा नहीं जा सकता है।

 

  • केशवानंद भारती मामले में जहां सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संरचना का सिद्धांत पेश किया, यानी संसद के पास संविधान के मूल ढांचे में फेरबदल किए बिना संशोधन करने की शक्ति है।

 

  • सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी घोटाले की सीबीआई जांच में एक पर्यवेक्षी भूमिका निभायी है।

 

  • हसन अली खान के खिलाफ आतंकी कानूनों को लागू करने में।

 

इसके अलावा, न्यायिक सक्रियता की अवधारणा को भी कुछ आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा था। सबसे पहले, अक्सर यह कहा जाता है कि सक्रियता के नाम पर न्यायपालिका अक्सर व्यक्तिगत राय का पुनर्लेखन करती है। दूसरा, शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत पराभूत होना है। हालांकि, इसके महत्व को इस प्रकार समझा जा सकता है कि यह पीड़ित व्यक्तियों के लिए आशा की एक जगह वाली संस्था है।समीक्षा और सक्रियता के बीच केवल अलगाव की एक पतली रेखा है। न्यायिक समीक्षा का अर्थ कानून/अधिनियम के संविधान के अनुरूप होने के बारे में निर्णय करना है। वहीं दूसरी ओर न्यायिक सक्रियता का संबंध न्यायाधीश की एक व्यवहारिक अवधारणा से है। यह मुख्य रूप से सार्वजनिक हित, मामलों के शीघ्र निपटान आदि पर आधारित है।न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ, अदालतें मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करती हैं। इस प्रकार, न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भारत के बुनियादी संविधान के भाग के रूप में मान्यता प्राप्त है।न्यायिक सक्रियता, लोकतंत्र को और भी मजबूत बनाने में मदद करती है। इसकी अनुपस्थिति में लोकतंत्र सच्चे मायने में लोकतंत्र नहीं होता है। इसके अलावा, न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र के आदर्शों पर ध्यान में रखती है असल में मुखर और प्रभावशाली आवाजों से अनसुनी आवाजों को दफन होने से बचाना सुनिश्चित करना वास्तव में आवश्यक है।

 

 

 

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