द बिग पिक्चर : ठंडे बस्ते में पड़ा गोरखालैंड का मुद्दा फिर क्यों सुलग उठा

द बिग पिक्चर : ठंडे बस्ते में पड़ा गोरखालैंड का मुद्दा फिर क्यों सुलग उठा

प्रसारण तिथि- 15.06.2017

चर्चा में शामिल मेहमान
गौतम लाहिड़ी
(वरिष्ठ पत्रकार)
प्रो. सुब्रत मुखर्जी
(राजनीतिक विश्लेषक)
एच.बी. छेत्री
(जन आंदोलन पार्टी के अध्यक्ष)
बाल्मीकि प्रसाद सिंह
(पूर्व राज्यपाल)
एंकर- फ्रैंक रौशन परेरा

सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3: प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन।
(खंड- 17: आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले शासन विरोधी तत्त्वों की भूमिका।)

संदर्भ

गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा

1-गोरखालैंड का यह मुद्दा 1980 के दशक के मध्य में बेहद चर्चित हुआ था|

2-पश्चिम बंगाल स्थित दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में बसे नेपाली मूल के गोरखा, भोटिया और लेप्चा आदि समुदायों ने अपने लिये अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ की मांग करते हुए गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के बैनर तले सुभास घिसिंग के नेतृत्व में आंदोलन शुरू किया था|

3-कई बार यह आंदोलन उग्र हुआ और क्षेत्र में व्यापक हिंसा भी हुई| 1985 से 1988 के बीच चली लगातार हिंसा में हजारों लोग मारे गए| इसके बाद केंद्र से समझौता हुआ और वहाँ शान्ति स्थापित हुई|

1-गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट से अलग होकर बिमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की नींव रखी और गोरखालैंड की मांग फिर तेज़ हो गई|

2- हालिया हिंसा का दौर पश्चिम बंगाल सरकार की उस घोषणा के बाद शुरु हुआ, जिसमें कहा गया है कि राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में बंगाली भाषा पढ़ाई जाए|

3-इस फैसले के बाद एक बार फिर विरोध की चिंगारी सुलग गई| गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का आरोप है कि ममता बनर्जी सरकार उन पर बंगाली भाषा थोप रही है|

 

वर्तमान परिदृश्य
हो सकता है कि स्कूलों में ममता बनर्जी का बंगाली को अनिवार्य बनाने का मुद्दा राजनीति से प्रेरित रहा हो, लेकिन यह भी सत्य है कि बंगाली समुदाय अपनी भाषाई पहचान को लेकर अतिरिक्त सचेत रहा है| इसका प्रमाण हैं आज़ादी से पहले और बाद में बंगाली भाषा के समर्थन में चले आंदोलन, जिनमें कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था| फिलहाल दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्र में जो हिंसक आन्दोलन चल रहा है, उसके मूल में यही भाषा का मुद्दा है|

माना यह जा रहा है कि गोरखालैंड की मांग करने वाला नेतृत्व लंबे समय से किसी मुद्दे की तलाश में था और ममता बनर्जी ने यह उसे प्लेट में रखकर पेश कर दिया|

बिमल गुरुंग बार-बार एक ही बात कह रहे हैं कि जिस क्षेत्र के 95% लोग नेपाली बोलने वाले हैं, वहाँ बांग्ला भाषा लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिये यह मुद्दा भाषाई भी बन गया है|

कांग्रेस और माकपा जैसे दल राज्य का विभाजन करने के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन क्षेत्रीय भावनाओं का उभार देख चुपचाप बैठे हैं|

एक मत यह भी है कि कोलकाता के बिना दार्जिलिंग व्यावहारिक नहीं है, लेकिन इस पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले गोरखाओं का यह मानना है कि बंगाली उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं करते, जिसके वे हकदार हैं|

प्रबल उप-राष्ट्रवाद की भावनाओं में जकड़े गोरखा समुदाय को यह भी शिकायत है कि आज भी उन्हें ‘नेपाली’ कहकर संबोधित किया जाता है|

1975 में सिक्किम के भारत में विलय के बाद जो दर्जा गंगटोक को मिला, उसने भी दार्जिलिंग के जले पर नमक छिड़कने का काम किया|

इसके अलावा इस क्षेत्र में रहने वालों की एक प्रमुख शिकायत यह है कि उनके यहाँ 80-90 चाय बागान हैं और उनसे मिलने वाले राजस्व की तुलना में दार्जिलिंग को उसका उचित हिस्सा नहीं मिलता|

इसके अलावा यह मानने वालों की कमी नहीं है कि दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में देश के चुनिंदा रेजिडेंशियल स्कूल हैं तथा पर्यटन की दृष्टि से भी यह बेहद समृद्ध है| ऐसे में इसकी अलग पहचान होना ज़रूरी है|

कुछ विश्लेषकों का यह मत है कि भाजपा के राज्य में बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिये ममता बनर्जी ने भाषा का संवेदनशील मुद्दा उठाया, जिसकी विपरीत प्रतिक्रया दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में देखने को मिली|

इसके विपरीत ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं है कि देश के अन्य क्षेत्रों में चल रहे किसान आन्दोलनों की आँच कम करने के लिये भाजपा ने इस मुद्दे को हवा दी|

माना जा रहा है कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा में बिमल गुरुंग के नेतृत्व को चुनौती मिल रही है तथा गोरखालैंड एंड आदिवासी टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन के चुनाव अगले माह होना प्रस्तावित है| गोरखालैंड एक ऐसा मुद्दा है, जो बिखरे हुए सभी गुटों को एक छतरी के नीचे ले आता है|

ऐसे में बिमल गुरुंग किसी मुद्दे की तलाश में थे, जो उन्हें बैठे-बिठाए मिल गया| वर्तमान परिस्थितियों में ‘गोरखालैंड’ के नाम पर विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में एका लाना कोई कठिन काम नहीं है; और ऐसा ही देखने में भी आ रहा है|

इसके अलावा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की चिंता का एक बड़ा कारण यह भी है कि मैदानी समझी जाने वाली तृणमूल कांग्रेस ने पहाड़ी क्षेत्रों में हाल ही में हुए स्थानीय चुनावों में कई स्थानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए अपने वोट प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि की तथा मिरिक नगरपालिका में जीत भी दर्ज की| पहाड़ी क्षेत्र में चल रही हिंसा का संबंध इसके साथ भी जोड़ा जा रहा है|

हाल ही में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से अलग हुए एक धड़े का यह मानना है कि यह सब इस क्षेत्र में बसे लोगों की हताशा का परिणाम है, जो एक पृथक राज्य चाहते हैं और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता|

क्या है गोरखालैंड का मुद्दा?

अलग गोरखा राज्य की मांग के पीछे औपनिवेशिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों के अलावा पहचान की राजनीति भी छिपी है|

1865 में जब अंग्रेज़ों ने चाय बागान शुरू किये तो बड़ी तादाद में मजदूर यहाँ काम करने आए|

अंग्रेज़ों के अधिकार में आने से पहले यह इलाका सिक्किम में आता था|

चूँकि तब कोई अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा नहीं थी, इसलिये ये लोग खुद को गोरखा राजा के अधीन मानते थे|

इस इलाके को वे अपनी ज़मीन मानते थे, लेकिन आज़ादी के बाद भारत ने नेपाल के साथ शांति और दोस्ती के लिये 1950 में समझौता किया| सीमा विभाजन के बाद यह हिस्सा भारत में आ गया|

इनका कहना है कि बंगाली और गोरखा मूल के लोग सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर एक-दूसरे से अलग हैं, जिससे अलग गोरखा राज्य की मांग का मुद्दा बराबर चर्चा में बना रहा|

1960 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ बी.सी. रॉय ने भी दार्जिलिंग में बांग्ला को अनिवार्य बनाने का प्रयास किया था, तब भी उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा था।

किसी राज्य की मांग को लेकर चलने वाला यह देश का सबसे लंबा आंदोलन है|

सर्वप्रथम 5 अप्रैल 1980 को सुभास घिसिंग ने इस आंदोलन को 'गोरखालैंड' नाम दिया था|

केंद्र सरकार ने 2005 में छठी अनुसूची के तहत क्षेत्र दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को मंज़ूरी दी थी।

2008 में सुभास घिसिंग को तब दार्जिलिंग छोड़ना पड़ा, जब स्थानीय लोगों ने उन पर नेपाली अस्मिता और धार्मिक आधार पर फूट डालने का आरोप लगाया।

इसके बाद नेतृत्व के फलक पर बिमल गुरुंग उभरे और 8 सितंबर 2008 को भारत सरकार, पश्चिम बंगाल और पहाड़ की राजनीतिक पार्टियों के बीच बैठक हुई, जिसमें राजनीतिक पार्टियों ने 51 पेज का मांगपत्र केंद्रीय गृह सचिव को सौंपा|

29 अक्तूबर 2011 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद ने मिलकर 18 बिंदुओं पर समझौता किया.

इसके बाद गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन के स्थान पर नया प्रशासकीय संगठन गोरखालैंड एंड आदिवासी टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन बना|

आज जिस हिस्से को लेकर गोरखालैंड बनाने की मांग की जा रही है, उसका कुल क्षेत्रफल 6246 किलोमीटर का है|

इसमें बनारहाट, भक्तिनगर, बिरपारा, चाल्सा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कलिम्पोंग, कुमारग्राम, कार्सियोंग, मदारीहाट, मालबाज़ार, मिरिक और नागराकाटा शामिल हैं|

 

क्या है समाधान?

गोरखालैंड की मांग करने वालों को मध्य मार्ग अपनाना होगा, क्योंकि इतना तो तय है कि मात्र 20 लाख लोगों के लिये भाषाई, जातीय या सांस्कृतिक आधार पर पृथक गोरखालैंड बनाना संभव नहीं है| उन्हें वर्तमान सत्ता व्यवस्था में ही अधिक भागीदारी हासिल करने के लिये प्रयास करने होंगे|

जिन चाय बागानों से आय का तर्क दिया जा रहा है उनकी हालत खुद खस्ता है और उन्हें कड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है| कई चाय बागानों पर ताले पड़ चुके हैं| राजस्व का मुख्य स्रोत पर्यटन है, जो इस आंदोलन से प्रभावित हो रहा है|

स्थानीय शासन को कुछ सीमा तक स्वायत्तता देते हुए क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये इन चाय बागानों को पुनः लाभदायक बनाने और पर्यटन का विस्तार करने के लिये अवसंरचनात्मक उपाय करने चाहिये|

अस्पताल, कार्यालय, होटल और स्कूलों के विस्तार की अपार संभावनाएं हैं, इनके माध्यम से रोज़गार के अवसर पैदा किये जा सकते हैं| युवाओं को रोज़गार मिलेगा तो वे हिंसा से विमुख होंगे|

इस मुद्दे को हल करने के लिये देश के संविधान के तहत मध्यमार्गी उपाय करने होंगे, जिसमें केंद्र, राज्य और स्थानीय प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए|

अलग गोरखालैंड की माँग को किसी भी राष्ट्रीय दल का समर्थन प्राप्त नहीं है तथा एक निश्चित सीमा के बाद उप-राष्ट्रीयता की मांग पर विचार करना संभव नहीं रहता| इसलिये अलग राज्य की मांग को त्याग कर क्षेत्र के विकास पर ध्यान देना होगा|

यह एक राजनीतिक मुद्दा है और इसका हल भी राजनीतिक ही होगा| भौगोलिक दृष्टि से यह इलाका पश्चिम बंगाल की मुख्यधारा से बहुत दूर है और भाषा-संस्कृति का बंगाली तत्त्व यहां काफी कमज़ोर है। ऐसे में इस पहाड़ी इलाके की समस्या को हल करने के लिये एक अलग मॉडल की आवश्यकता है।

                                                                 गोरखालैंड का समयरेखा

1907

पहली बार दार्जीलिंग में अलग प्रशासनिक इकाई कि मांग के लिए आवाज उठाई गई। हिलमेन्स असोसिएशन ने मिंटो-मोर्ली रिफॉर्म को

एक ज्ञापन सौंपा जिसमेँ एक अलग प्रशासनिक निकाय कि मांग कि गई थी।

1917

हिलमेन्स असोसिएशन ने बंगाल सरकार और वाइसराय को एक ज्ञापन सौंप कर जलपाईगुड़ी और दार्जीलिंग जिले को लेकर एक अलग प्रशासनिक निकाय बनाने के लिए कहा था।

1929

हिलमेन्स असोसिएशन ने फिर से साइमन कमीशन के समक्ष अपनी मांग रखी।

1930

हिलमेन्स असोसिएशन, गोरखा ऑफिसर्स असोसिएशन और कुर्सियांग गोरखा लाइब्रेरी के द्वारा भारत सरकार के समक्ष एक संयुक्त

याचिका पेश किया गया जिसमें बंगाल प्रोविंस से अलगाव कि मांग कि गई थी।

1941

रूप नारायण सिंह के अध्यक्षता में हिलमेन्स असोसिएशन ने भारत सरकार से आग्रह किया कि दार्जीलिंग को बंगाल से अलग कर इसे मुख्य आयुक्त का प्रांत बनाया जाय।

1947

अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने विधान सभा में एक ज्ञापन सौंप कर गोरखास्थान बनाने कि मांग कि जिसमें सिक्किम और दार्जीलिंग को एक साथ रखने कि बात कही गई थी।

1952

अखिल भारतीय गोरखा लिग के अध्यक्ष एनबी गुरुंग प्रधानमंत्री नेहरू से मिल कर बंगाल से अलगाव कि मांग की।

1980

प्रान्त परिषद ऑफ दार्जीलिंग जिसके अध्यक्ष इंद्र बहादुर राई थे ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने दार्जीलिंग

को अलग कर एक अलग राज्य बनाने कि मांग कि थी। उसी साल सुभाष घीसिंग कि अध्यक्षता में गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा गोरामो (गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट GNLF) का उदय हुआ था।

1986

गोरामो ने गोरखालैंड के लिए हिंसक आंदोलन किया। इस हिंसा में 1200 लोगों कि जान गई थीं।

1988

दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद के समझौते पर गोरामो, ज्योति बसु की अध्यक्षता में वाम मोर्चा सरकार और केंद्र सरकार ने हस्ताक्षर

किया।

2007

बिमल गुरुंग द्वारा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का उदय।

2011

सिप्चू (डुआर्स) में गोजमो के तीन समर्थक मारे गयें। हिंसक आंदोलन का आरम्भ। इसी वर्ष गोरखा क्षेत्रीय प्रशासन का गठन भी हुआ।

निष्कर्ष
अलग गोरखालैंड का मुद्दा न तो भाषाई है और न ही क्षेत्र के विकास से इसका कोई लेना-देना है| यह विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा है, जिसमें ममता बनर्जी का पलड़ा भारी है| क्षेत्र की पर्यटन पर आधारित अर्थव्यवस्था अधिक समय तक ऐसा अराजक माहौल नहीं झेल सकती और स्थानीय स्तर पर ही इसका विरोध शुरू हो जाएगा| बिमल गुरुंग क्षेत्र में अपनी पकड़ पुनः कायम करना चाहते हैं और उन्हें चुनौती अपने दल के भीतर से तो मिल ही रही है, ममता बनर्जी का भी सामना उन्हें करना पड़ रहा है| यदि गोरखा दलों को राज्य सरकार से कोई शिकायत है तो उसे उचित मंच पर उठाना सही तरीका है, न कि पूरे क्षेत्र को बंधक बनाकर उसे हिंसा की आग में झोंक देना|

 

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