द बिग पिक्चर : इसरो की सफलता का क्या कारण है?

द बिग पिक्चर : इसरो की सफलता का क्या कारण है?

प्रसारण तिथि- 05.06.2017

चर्चा में शामिल मेहमान
गौहर रज़ा
(वरिष्ठ वैज्ञानिक)
अजय लेले
(अनुसंधान फेलो, आईडीएसए)
आर. रामचंद्रन
(सलाहकार, फ्रंटलाइन, द हिंदू समूह )
चद्रभूषण देवगन
(अध्यक्ष, अंतरिक्ष फाउंडेशन गैर सरकारी संगठन)
एंकर- फ्रैंक रौशन परेरा

सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र – 3 : प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन|
( खंड – 12 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ; देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास और नई प्रौद्योगिकी का विकास )

सन्दर्भ :

इसरो ने अपने सबसे भारी प्रक्षेपण वाहन जी.एस.एल.वी. एम के-3 का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण कर देश के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसैट-19 को भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित किया है|

महत्त्व:

यह पूरे देश के लिये एक नये युग की शुरुआत है| हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि विज्ञान के एक क्षेत्र की सफलता कई नये क्षेत्रों में संभावना के द्वार खोलती है| आज जो देश विज्ञान के क्षेत्र में आगे हैं उन्होंने हमसे बहुत पहले शुरुआत की थी|

इसरो ने जब शुरुआत की थी तब उसके पास कुछ नहीं था| वह दौर साईकल और बैलगाड़ी का था| उस समय भारत की अच्छी संस्थाओं ने अपने छात्रों को भी इसरो में नहीं भेजा था| उस समय इसरो में छोटे कालेजों एवं विश्वविद्यालयों से छात्र आते थे| लेकिन ये छात्र काफी ऊर्जावान थे| उनका नारा था कि यदि अन्य कोई कर सकता है तो वे भी इसे कर सकते है; वह भी उनसे सस्ता और बेहतर! इस नारे ने प्रारंभिक वैज्ञानिकों को बहुत प्रेरित किया|

अन्य संथाओं को सीखना चाहिए:

इसरो की इस सफलता से अन्य संस्थाओं को सीख लेनी चाहिये| उनके दृष्टिकोण उतने स्पष्ट होने चाहियें जितने विक्रम साराभाई तथा सतीश धवन के पास थे| यही इसरो की सफलता का राज है कि उन्होंने योजना बनाई, टीम वर्क किया और उसको अंजाम तक पहुँचाया| हमारी कई संस्थाओं में इस भावना का अभाव देखा जाता है|

आत्मनिर्भरता:

इस उपलब्धि से हम निश्चित तौर पर और अधिक आत्मनिर्भर बनेंगे| भारत अब तक डेढ़ टन वज़न वाले उपग्रह के प्रक्षेपण के लिये फ्रांस के एरियन प्रक्षेपण यान पर निर्भर रहता था| परन्तु, अब हमारे पास भू-स्थैतिक कक्षा में उपग्रह ले जाने की क्षमता हासिल हो गई है| अब तक जो दो टन वज़न वाले उपग्रह छोड़े जा रहे थे, उनमें 34 ट्रांसपोंडर्स लगे होते थे परन्तु अब इन उपग्रहों में 48 ट्रांसपोंडर्स लगाये जा सकेंगे |वैसे भी इनकी मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है|

इस तरह अंतरिक्ष तकनीक जैसे प्रोपेलेंट विनिर्माण, उपग्रह विनिर्माण, चार टन वाले उपग्रह प्रक्षेपण क्षमता का विकास इत्यादि में भारत पूर्ण स्वायत्त हो जाएगा| हमें अपने कार्य के लिये अन्य अंतरिक्ष शक्तियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा| उन पर निर्भरता की लागत अधिक पड़ती थी जो शायद 100 मिलियन डॉलर प्रति प्रक्षेपण पड़ती थी| अब वही प्रक्षेपण 40 मिलियन से कम लागत पर भी हो सकेगा और इससे काफी धन की बचत होगी|

इसरो की वर्तमान सफलता मात्र दो–तीन वर्षों का प्रयास नहीं है बल्कि दशकों के कड़े प्रयास का नतीज़ा है| परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका और रूस के प्रतिबंधों के बावजूद भी हमारे वैज्ञानिक इस दिशा में कार्य करते रहे | पिछले पंद्रह वर्षों से वैज्ञानिक क्रायोजेनिक इंजन का निर्माण कर रहे थे और इन प्रतिबंधों के बावजूद इस मुकाम तक पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि है|

रक्षा क्षेत्र को मदद
रक्षा क्षेत्र के लिए संचार महत्त्वपूर्ण होता है| कुछ वर्षो पहले तक हम रक्षा क्षेत्र की सामरिक ज़रूरतों के लिए एरियन पर निर्भर थे, परन्तु अब स्थिति बदल चुकी है और जी.एस.एल.वी प्रक्षेपण क्षमताओं का विकास कर भारत अपनी रक्षा ज़रूरतों के लिये स्वदेश निर्मित एवं प्रक्षेपित उपग्रहों पर निर्भर रहना चाहता है| भारत स्वयं के उपग्रह प्रक्षेपण की दिशा में मजबूत कदम बढ़ा रहा है|

                                                                                  स्क्रैमजेट इंजन का सफल परीक्षण 

 

क्या है स्क्रैमजेट इंजन ?

1-स्क्रैमजेट इंजन का प्रयोग केवल रॉकेट के वायुमंडलीय चरण के दौरान ही होता है।

2-यह ईंधन के साथ प्रयोग होने वाले ऑक्सीडाइजर की मात्रा को घटा कर प्रक्षेपण लागत को कम करने में मददगार है।

3-स्क्रैमजेट सुपरसोनिक इंजन है। यह रॉकेट को 5 मैक या उससे ऊपर उड़ने में सहायता देती है।

4-इन इंजनों में कोई गतिशील भाग नहीं होता है।

5-स्क्रैमजेट इंजन ऑक्सीजन को द्रवित कर सकता है और इसे रॉकेट या जहाज में संग्रहीत कर सकता है।

स्क्रैमजेट इंजन से होने वाले लाभ:

1-इससे रॉकेट का वजन लगभग आधा हो जाएगा।

2-रॉकेट के कुल भार में 86 फीसदी द्रव्यमान ईंधन (प्रणोदक) का होता है और उसमें भी कुल ईंधन का 70 प्रतिशत  ऑक्सीडाइजर (तरल ऑक्सीजन) होता है।

निष्कर्ष:

यदि ऑक्सीडाइजर की जगह वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन का उपयोग किया जाए तो इतना भार लेकर जाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। इससे लागत तो घटेगी ही रॉकेटों की कार्यक्षमता भी काफी बढ़ जाएगी।

रॉकेट में इस प्रणाली को लागू किए जाने के बाद रॉकेट भी श्वसन प्रक्रिया की तरह वायुमंडल से स्वत: ऑक्सीजन प्राप्त करने लगेंगे। इससे रॉकटों के इंजन में दहन पैदा करने के लिए अलग से तरल ऑक्सीजन (ऑक्सीडाइजर) भेजने की जरूरत नहीं रह जाएगी और प्रक्षेपण यानों का वजन काफी कम हो जाएगा।

 

                                                                              इसरो ने रचा इतिहास, एक साथ छोड़े 104 उपग्रह

 

अपनी 39th उड़ान के साथ PSLV दुनिया का सबसे भरोसेमंद सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल बन गया। 1993 से लेकर अब तक इसने 38 उड़ानों में कई भारतीय और 180 विदेशी सैटेलाइट्स स्पेस में पहुंचाए हैं। इस बार 104 सैटेलाइट्स लॉन्च करने के लिए साइंटिस्ट्स ने PSLV के पावरफुल XL वर्जन का इस्तेमाल किया। ध्यान देने योग्य है कि 2008 में मिशन चंद्रयान और 2014 में मंगलयान भी इसी के जरिए पूरे हो सके थे।

·                     प्रक्षेपित किए जाने वाले 104 उपग्रहों में 03 भारतीय, 96 अमेरिकी और शेष इजरायल, कजाखिस्तान, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड और संयुक्त अरब अमीरात से हैं।

·                     उपग्रहों का प्रक्षेपण पीएसएलवी-सी37 से किया गया ।

·                     उपग्रहों का संयुक्त भार 1378 किग्रा है।

·                     इसमें भारत का 714 किग्रा का रिमोट-सेंसिंग काटरेसेट-2 और 15-15 किग्रा के दो छोटे उपग्रह INS-1A और INS-1B भी सम्मिलित हैं।

भारतीय उपग्रह कार्टोसेट-2

 

·                     इसरो ने कार्टोसेट-2 सीरीज का चौथा सैटेलाइट स्पेस में भेजा।

·                     इसके जरिए रिमोट सेंसिंग सर्विस मिलेगी। 

·                     इसके जरिए भेजी गई तस्वीरें कोस्टल एरिया में रोड ट्रैफिक, पानी के डिस्ट्रीब्यूशन, मैप रेग्युलेशन समेत कई कामों के लिए अहम होंगी। 

·                     कार्टोसेट -2 सीरीज मिशन का जीवन काल 5 साल है।

 

                                                                                जी.एस.एल.वी. (GSLV) मार्क-III

 

1-जी.एस.एल.वी. मार्क-III अपने साथ जीएसएटी-19 संचार उपग्रह को ले जाएगा, यह उपग्रह  VSAT (VERY SMALL APERTURE TERMINAL) तकनीक के साथ-साथ डाटा कनेक्टिविटी तथा ऐसे ही अन्य अनुप्रयोगों के बेहतर संचालन में मददगार होगा।  

2-यह उपग्रह मल्टीपल स्पॉट बीम (MULTIPLE SPOT बीम ) का प्रयोग करके भारत के भारत के सम्पूर्ण भू-भाग को कवर करेगा। इसरो का दावा है कि इससे इंटरनेट की गति और कनेक्टिविटी बढ़ जाएगी।  

3-इसके अतिरिक्त, मार्क-III की सफलता का मतलब होगा कि अब भारत संचार उपग्रहों को स्वयं ही प्रक्षेपित करने में सक्षम होगा।  

4-मार्क-III का प्रयोग  भारी उपग्रहों को कक्षा में स्थापित करने  के लिये किया जाएगा, जो वर्तमान में ज़्यादातर यूरोप की एरियन स्पेस एजेंसी की सहायता से प्रक्षेपित किये जाते हैं, क्योंकि इस तरह के प्रक्षेपण  के लिये भारत के पास उतनी क्षमता का शक्तिशाली रॉकेट नहीं है। इसके लिये भारत को एरियन स्पेस एजेंसी को भारी वित्तीय शुल्क भी अदा करनी होती है, लेकिन मार्क-III की आ जाने  से यह वित्तीय भार कम हो जाएगा।  

 

 निष्कर्ष:

भारत में संस्थाओं की विफलता के कई कारण हैं, जैसे- धन की समस्या, अभिप्रेरणा की कमी तथा उपयोगिता का अभाव इत्यादि| यहाँ बुनियादी विज्ञान (बेसिक साइंस ) पर फोकस नहीं किया जाता है| हमें बुनियादी विज्ञान में निवेश करना होगा | जब तक इसमें निवेश नहीं होगा तब तक ‘एप्लाइड साइंस’ का विकास नहीं होगा| इसरो ने इस दिशा में एक अच्छा संतुलन बनाया है जो अनुकरणीय है|

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