द बिग पिक्चर : अमेरिका हुआ पेरिस समझौते से बाहर – कारण एवं निहितार्थ

द बिग पिक्चर : अमेरिका हुआ पेरिस समझौते से बाहर – कारण एवं निहितार्थ

प्रसारण तिथि- 02.06.2017

चर्चा में शामिल मेहमान
मीरा शंकर
(पूर्व राजनयिक)
नितिन सेठी
(वरिष्ठ सहायक संपादक, बिज़नेस स्टेंडर्ड)
ए.एल. रामनाथन
(प्रोफेसर, स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट साइंस, ज़े.एन.यू.)
चंद्रा भूषण
(उपमहानिदेशक, सी.एस.ई.)
एंकर- फ्रैंक रौशन परेरा

सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 2 : शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध
(खंड- 18: द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)

सन्दर्भ

पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से पीछे हटने की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घोषणा की दुनिया भर में निंदा हुई है। यू.एन. प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस (António Guterres) ने इसे बड़ी निराशा बताया है, जबकि यूरोपीय संघ ने इसे दुनिया के लिये दुःख का दिन कहा है।

                              पेरिस समझौता

1- वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना और कोशिश करना कि वो 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े.

2- मानवीय कार्यों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को इस स्तर पर लाना की पेड़, मिट्टी और समुद्र उसे प्राकृतिक रूप से सोख लें. इसकी शुरुआत 2050 से 2100 के बीच करना.

3-  हर पांच साल में गैस उत्सर्जन में कटौती में प्रत्येक देश की भूमिका की प्रगति की समीक्षा करना.

4-  विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्तीय सहायता के लिए 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष देना और भविष्य में इसे बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता.

 

 ट्रंप ने ऐसा क्यों किया ?

दरअसल, ट्रंप विकासशील देशों खासकर भारत और चीन को दी गई कुछ रियायतों से असंतुष्ट थे। उन्होंने अपने चुनाव अभियान के दौरान ही कहा था कि यदि वे राष्ट्रपति बनते हैं तो अमेरिका इस समझौते से पीछे हट जाएगा तथा इस समझौते पर नए सिरे से वार्ता करेगा। उनके अनुसार यह समझौता अमेरिकियों पर दबाव डालता है तथा लाखों अमेरिकी लोगों की नौकरियाँ छीन लेगा। इसलिये वह इस पर फिर से विचार करेंगे।

ट्रंप अमेरिकी कंज़रवेटिव पार्टी के उस धड़े से सहमत रहे हैं, जो मानता है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान एक थोथी आशंका है। इस वज़ह से ये लोग कार्बन उत्सर्जन में कटौती से अमेरिका के औद्योगिक हितों के प्रभावित होने की बात करते रहे हैं। ये अमेरिका की जी.डी.पी. वृद्धि दर और आर्थिक संपन्नता घटाने की बात भी करते रहे हैं। इस गुट की इन्हीं धारणाओं के चलते ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में ‘अमेरिका फर्स्ट’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था।

ट्रंप की यह घोषणा कोई अचानक नहीं है, पूरी दुनिया पहले से ही इस बात से अवगत थी । सवाल यह है कि अन्य देशों ने इसे कितनी गंभीरता से लिया था ?

दरअसल ट्रंप के निर्वाचन क्षेत्र में अनेक ऐसी कंपनियाँ है जो तेल, गैस एवं कोयले से संचालित हैं ; उन कंपनियों में हजारों लोग कार्य करते हैं और इस तथ्य की अनदेखी ट्रंप नहीं कर सकते थे। इसलिये वे बार- बार कहते थे कि वे पेरिस जलवायु समझौते में नये शर्तों के साथ, जो अमेरिका की हित में होंगी, प्रवेश करेंगे।

उन्होंने दो प्रमुख मुद्दे उठाये हैं जिन पर गौर किया जा सकता है- ट्रंप ने भारत और चीन पर आरोप लगाया है कि इन दोनों देशों ने विकसित देशों से अरबों डॉलर की मदद लेने की शर्त पर इस समझौते पर दस्तखत किये हैं । पेरिस समझौते के तहत चीन अभी अगले 13 वर्षों तक उत्सर्जन कर सकता है जबकि अमेरिका नहीं,लिहाजा यह समझौता अमेरिका के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है।

भारत के लिये निहितार्थ

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से भारत के पश्चिमी भाग में तापमान बढ़ रहा है। पिछले वर्ष चेन्नई में हुई भारी वर्षा को भी इसी का परिणाम माना जा रहा है । सभी जगह इसके दुष्प्रभाव देखे जा रहे हैं , स्वयं अमेरिका, जो इसके लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार है, वह भी इससे अछूता नहीं है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है। वर्ष 2030 तक हमारी 40 फीसदी ऊर्जा इन स्रोतों से आएगी।

जलवायु परिवर्तन से हमारी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा लेकिन भारत के लिये पैसा बड़ा मुद्दा नहीं है।हालाँकि , तापमान को 2 डिग्री कम रखने की वैश्विक प्रतिबद्धता, अमेरिका के पेरिस समझौते से हटने के बाद और भी कठिन हो जाएगी।

विश्लेषण

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अमेरिका सबसे बड़ा खिलाड़ी है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। हमें उसके साथ मिलकर कार्य करना ही होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के टेबल पर यह कहना आसान है की अमेरिका के बिना भी यह समझौता सफल होगा , परन्तु वास्तविक भू–राजनीति में बगैर अमेरिका को साथ लिये यह मिशन आगे नहीं बढ़ सकता है। पेरिस समझौता इतना महत्त्वपूर्ण है कि अब इससे पीछे नहीं मुड़ा जा सकता है।

यहाँ तकनीक हस्तांतरण का मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये विकासशील देशों को नई तकनीकों की आवश्यकता है जिसे वे विकसित देशों से प्राप्त करतें हैं। इससे उनके देश का धन विकसित देशों को जाएगा। इसीलिये विकासशील देश फंडिंग की मांग कर रहे थे।

यह समझौता विकसित और विकासशील देशों पर एक समान नहीं लागू किया जा सकता था। इसी कारण से इस समझौते में विकासशील देशों के लिये कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिये आर्थिक सहायता और कई तरह की छूटों का प्रावधान किया गया है।

निष्कर्ष
विश्व के 194 देशों के लिये यह परीक्षा की घडी है,जिसमें उन सबको एकजुट हो जाना चाहिये । अमेरिका भी पूरे विश्व की सम्मिलित ताकत के आगे नहीं ठहर पायेगा और उसे समझौते के वर्तमान स्वरूप को मानना ही होगा । मौजूदा पेरिस समझौता एक कमज़ोर समझौता है। अमेरिका का इससे बाहर निकलना इस समझौते को मज़बूत करने का एक अवसर भी है। अतः 194 हस्ताक्षरकर्त्ताओं को इस पर पुनः विचार करना चाहिये। अमेरिका के बिना वर्तमान समझौता अर्थहीन है।

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